सिवाना डायरीज - 12
सिवाना_डायरीज - 12
1750 के दशक के आस-पास पहली बार ब्रिटिश जब भारत आये थे, विश्व के कुल उत्पादन में भारत का योगदान 24.4 प्रतिशत था और खुद ब्रिटेन का महज 1.9 प्रतिशत। 200 सालों में हमारे हाथों से हथकरघा और हल छीन अपनी मशीनों के ऑपरेटर बना उन्होंने हमारी ये हालत कर दी कि देश के आजाद होते वक्त विश्व के उत्पादन में ब्रिटेन का योगदान 17.4 प्रतिशत हो गया और भारत का रह गया 1.7 प्रतिशत।
अगस्त-सितंबर माह की इंडिया टूडे का एक आर्टिकल जब पढ़ रहा था, उसके उपर्युक्त आँकड़ों से मेरा खून अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ कतई नहीं खोला। उलट मुझे तरस आया कि हम कितना जल्दी तैयार हो गए ना मालिक से नौकर बनने के लिए। हम कितनी जल्दी तैयार हो गए काम की जिम्मेदारी नहीं लेने के लिए। हम तैयार हो गए मेवाड़ी कहावत 'बाण्या की नौकरी की होड नी वेवे' वाली हमें पीछे धकेल देने वाली व्यवस्था को स्वीकारने के लिए। हमनें संतुष्ट कर लिया खुद को सुबह-शाम की रोटी की व्यवस्था करके। हमनें सो काल्ड सभ्य और ऊँचा दिखने के लिए अपने खेतों में उगे, अपने हाथों से बुने कपड़ों पर स्वीकार कर लिया 'मेड इन इंग्लेंड' का टेग। हमनें टांग दिया उनका कैलेंडर घर की खूंटी पर और मना लिये अपने त्योहार भी उनके हिसाब से। और जो टीस है मन में, वो ये है कि कितना बदले हैं हम आजादी के बाद भी!
खैर वैश्वीकरण और राष्ट्रीयता को एक-दूसरे का विरोधी बताने वाले कहाँ समझ पाये हैं कि इस देश की मिट्टी ने खुद में ही कितना समन्वय कर रखा है इन दोनों का।
बहरहाल अच्छा दिन। घर पर बिताया दिन अच्छा ही होता है वैसे। रात को ट्रेवल के समय बस में लगा एसी अभिशाप सिद्ध हुआ मेरे लिए। पूरी रात ड्राइवर जी के साथ जगे-जगे आया मैं जालौर से पुर तक तो।
'बच्चो के विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उसके माँ-पिताजी की ही होती है। वो चाहे तो संतान को शिखर चुमवा दे और वो चाहे तो उन्हें अर्श से फिर फर्श तक आता भी खुद देखें।'
- जरूरी नहीं है कि दुनियाभर की सारी सीखें हमें कथित बुद्धिजीवी ही दे। अक्खड़ से दिखने वाले किसी बस के ड्राइवर की भी होती है अपनी जिंदगी। उसका भी अपना परिवार और बच्चे होते हैं। वो भी बता देता है कई बार ज़िंदगी के उसके अनुभव। मुझे भी ये बात हमारी बस के ड्राइवर जी ने ही बताई।
मतलब ना, उम्र और ओहदे के उस छोर पर खड़ा हूँ कि कोई लड़की जो धर्म, समाज, परिवार के पैरामीटर्स में फिट दिख जाये तो बस अटेम्प्ट करना शुरू कर दो। घर पर यही सीख देता सीन है। खास तौर परबहनों की तरफ से। दिन-भर उन्हीं के साथ बीता आज तो। गुड़िया ने शानदार मैगी बनाकर खिलाई खुशबू, नेहा, मोना, सोना और मुझे। शाम को माँसी-मौसाजी भी आये थे घर। सबने साथ में खाना खाया और सोने से पहले पापाजी की उपस्थिती मैं भैया का उसी बात पर जोर कि अब शादी कर लो बस।
अकेले में जब होता हूँ, तो एक लम्बी सी साँस छोड़ता हूँ और आँखें भर आती है ये सब सोचते ही। लगभग आधे के पास पहुँचे इकत्तीस साल के घट्टी के इस फेरे ने खूब प्यार और दुलार बटोरा है आज तक। खूब मौके दिये हैं खुद को खुश रखने के। खूब कमाये हैं अपने भी। मगर जब से समझ आई है, एक टीस हमेशा बनी हुई है कि एक इंसान नहीं है पास आज भी जो सम्भाल ले अकेलेपन के थपेड़ों में भी। कर ले अंतर मेरी चुप्पी और मौन में। शादी हो, न हो! मुझे करनी है या नहीं करनी! इन सबको टालते हुए मैं आज भी हूँ कोशिश में कि हमेशा मुझे सुनकर सच में खुश होने वाला मिल जाये इस जिन्दगी में कोई एक तो...
शब्बा खैर...
- सुकुमार
27/08/2022
Comments
Post a Comment