सिवाना डायरीज - 14

 सिवाना_डायरीज  - 14


सिवाना-बालोतरा रोड़ पर गुमटी जैसी एक छोटी सी मंदरी के बाहर अपने पैरों के छालों पर कपड़ों की कतरनें लपेटती उस देहाती सी दिखने वाली महिला के चेहरे पर थकान है। छालों पर कपड़े बांध वह फिर से चलने लगी डामर की सड़क पर। अपने फेटे को घुटने तक उठा हाथ में पकड़कर वह दौड़ना चाहती है क्योंकि उसके साथ वाले लोग आगे बढ़ चुके हैं। गुजरती बसों और मोदर-साइकिलों में से कहीं से भी जैसे ही 'जय बाबा री' आवाज आ जाती है तो वह दुगुनी आवाज में चिल्लाती है - 'जय बाबा री सा।'

लगभग आधा-एक किलोमीटर दूरी पर एक पेड़ के नीचे पिकअप खड़ी है। उसकी ट्रोली में बेतरतीब से भरे पड़े हैं कितने ही बेग्स। पीछे ही पीछे दो बड़े स्पीकर रखे हैं जिन पर भजन चल रहा है - 'हे रुणीचे रा धणिया,  अजमाल जी रा कंवरा, माता मेणादें रा लाल, राणी नेतल रा भरतार, म्हारो हेलो, सुणो नी रामा पीर जी, ओ जी...' भजन की धुन ऐसी है कि राह चलता भी थिरक ले इस साज पर। मगर हिम्मत नहीं हो रही शायद उन सबकी जिनके लिए ये बजाया जा रहा है। नीम के चबूतरे के चारो तरफ लेटे-बैठे वो लोग अपने-अपने ढंग से सुस्ता रहे हैं। एक स्टाॅव रखा हुआ है, जिस पर पानी गर्म हो रहा है। एक महिला उसमें से थोड़ा पानी एक पतीले में ले लेटे हुए एक आदमी के पैर धो रही है। वो आदमी एक पत्थर को तकिया बना दूसरे बड़े पर पैरों को थोड़ा ऊपर किये आँखे बंद करके पड़ा है। शायद पति-पत्नी है वे। तीन औरतें और एक आदमी उन्हीं के पास बैठकर केले खा रहे हैं। पच्चीस-तीस साल के दो-तीन युवा कानों मे इयरफोन ठूँस पत्थर का सिरहाना लगा लेटे हैं। सबके चेहरों पर घनघोर थकान है और एक उत्साह भी कि कब आँखें तृप्ति महसूस करे रूणीचा पहुँचकर।

सब-एक दूजे को सहारा देते हैं। कोई पीछे छूट गया हो तो आगे कहीं रुक प्रतीक्षा करते हैं उसकी। एक-दूजे के छालों पर मरहम-पट्टी कर लेते हैं। एक-दूसरे के पैर धो लेते हैं। एक को जब चलना हो तो दूसरे के कंधे का सहारा भी ले लेते हैं। असली समाजवाद दिख पड़ता है पद-यात्राओं में। सम्भवतया ये लोग मध्यप्रदेश से आ रहे हैं ठेठ रूणीचा तक। इनके लिए यही उत्सव है और खुद को एक्सप्लोर करने का तरीका भी। इनके लिए यही आउटिंग है और यही लांग-ट्रिप भी। इनकी अपनी मस्ती है जो अर्श पर होगी जब जैसलमेर जिले की पोकरण तहसील के रूणीचा गाँव में रामदेव जी के मंदिर में मत्था टेक लेंगे। ईश्वर है या नहीं और आस्तिकता एवं नास्तिकता के बीच में झूलते लोगों के इत्तर इनकी ये यात्रा ही इनके लिए स्वर्ग जैसी है।


एक और प्यारा सोमवार। रात को चढ़ा था बस में अपने साजो-सामान के साथ। सिवाना पहुँचकर उतारकर घर ले आया हूँ दोनो बोरे और अपनी आई-स्मार्ट सुबह छ: बजे ही। उनींदा था मगर एक बार पूरी गृहस्थी जमा दी है एक बार तो। बालोतरा गये थे सुबह जो अभी रात को लौटे हैं। ड्रिस्ट्रिक्ट-हेड रवि जी के साथ बैठना था उधर। गजब की पर्सनलिटी है महोदय की। ऐसे-ऐसे विषय जिन पर मैं एक-दो पंक्तियों से ज्यादा नहीं सोच पाता, उन पर पूरे सत्र कर लें वो बिना सामने वाले को बोरियत महसूस करवाये। सच बता रहा हूँ कि लब्बोलुआब यह था कि लघुशंका लगी थी जोर से, मगर उठकर जाने का मन नहीं था उनके सेशन से। डर था कि इतनी सारी बातों में से कुछ भी छूट न जाये। 

'सीखने की सारी जिम्मेदारी सीखने वाले की होती है' और 'Responsibility depends on your demonstration' जैसे सदासत्य क्वोट्स के साथ अपनी बात रखने वाले रवि जी के जैसी प्रजेंटेशन स्किल डवलप करनी है मुझे खुद में भी। ऑर्गेनाइजेशन हमारे लिए क्या सोचती है और हम इसके लिए क्या! - ऐसे विषय पर अपने साथियों से चर्चा करना अमूमन मुश्किल सा प्रतीत होता है मुझे। मगर यहाँ सब-कुछ सहज है, बहुत सहज। आने वाली वर्कशाॅप्स, इवेंट्स और वीटीएफ्स पर चर्चा कर रवि सर के जाने के बाद हम सब अगले दिन होने वाली वर्कशाप की तैयारी में जुट गये। 


मन ठीक है मगर पापाजी का दिल दुखता है तो पूरा ठीक भी नहीं रह पाता। मनोहरा साथ खड़ी है। अब तो कई विषयों पर हमारी थाॅट्स भी मेच करने लगी है। खान-पान कुछ ठीक करने के क्रम में संतरे और सेब ले आया हूँ बाजार से। मूँग-चने स्प्राउट करने के लिए भिगो ही रखे हैं। बाकी सब ठीक है। अभी आठ बजे तक घर पहुँचा हूँ। सुबह वापस बालोतरा ही जाना है। हरीश भाई की गाड़ी के पीछे बैठकर आ रहा था जब। रास्ते में एक और जत्था दिखा था रामदेवरा के पदयात्रियों का। एक मंदिर के बाहर भादुड़ी बीज मना रहे थे। हारमोनियम और ढोलक पर साथ गा रहे थे - खम्मा-खम्मा रे म्हारा रूणीचे रा धणिया/थानें धियावे आखी मारवाड़ ओ/आखी गुजरात ओ/अजमाल जी रा कंवरा/खम्मा-खम्मा रे...'

सोने से पहले ये भजन वापस सुन रहा हूँ मैं भी...

चलो अब खम्मा घणी सा सगळा ने...


- सुकुमार 

29/08/2022

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