सिवाना डायरीज - 15
सिवाना_डायरीज - 15
'गौतम! फिर बोलो तो, क्या कहा आपने?'
लम्बी और हल्की नीली धारियों वाला कुर्ता पहने एक सज्जन से दिखने वाले महानुभाव एक छोटे बच्चे से पूछ रहे थे।
'कुच नहीं तर, वो धलिमा के तिफिन ता तलर पिंत है। इचलिये मैं उते बोल लहा था ति पिंत तलर लड़तियों ता होता है।'
तुतलाता सा जवाब था उस बच्चे का।
'अच्छा, किसने बताया ये आपको गौतम?'
उसके पास एक घुटने पर बैठते हुये उन सज्जन ने पूछा।
'मेली दीदी बोल लही थी तर। उनतो बी बोत पतंद है पिंत तलर।'
बहुत मासूमियत भरा जवाब था गौतम का।
'बेटा, पर मेरी पानी की बाॅटल में भी पिंक ढक्कन है, राहुल सर के बैग का भी और अखिल सर तो आज शर्ट भी पिंक कलर की पहने हैं। फिर हम सब भी लड़कियाँ हो गई ना?'
ये तीसरा और सोचने को मजबूर कर देने वाला प्रश्न था उन सज्जन का।
'नहीं, तर। मधर पिंत तलर लड़तियों ता ही तो होता है!'
जैसा जाना था अब तक, गौतम उसी पर अड़ा रहा।
'नही गौतम, कोई सा भी रंग किसी एक का नहीं होता। प्रकृति ने जीवन को खूबसूरत बनाये रखने के लिए ही हमें सारे रंग दिये हैं'
उन सज्जन ने बहुत सज्जनता से ये बात कही।
'जी तर। तही बात है।'
बस इतना ही बोल पाया गौतम।
'हाँ गौतम, अब कभी न कहना कि ये कलर इसका है या उसका है। सब हमारे ही है कलर्स। सबकी अपनी-अपनी इम्पोर्टेंस हैं।'
ये अंतिम वाक्य था उन सज्जन का, और फिर वो चल दिये गौतम और मुझे एक स्माइल पास करते हुए अपने ऑफिस की तरफ।
गौतम भी 'जी तर' कहकर बच्चों में मशगूल हो गया।
-बाड़मेर की अज़ीम प्रेमजी स्कूल के प्रिंसिपल सर से पहला इंटरेक्शन था मेरा ये। बच्चों की छोटी से छोटी एक्टिविटी पर यूँ नजर रखना और उनको ठीक करने की ये सहजता पहले ही दिन में सम्मान बढ़ा गई मेरी नजरों में उनका।
मुद्दे की बात यह है कि मेरे नये कार्यस्थल पर सब लोग ऐसे ही हैं। बहुत सरल, बहुत सहज और सब के सब मुस्कुराते हुए। पर्सनलिटी डवलपमेंट के लिए जहाँ लोग-बाग खूब रूपये खर्च कर वर्कशाॅप्स करते हैं, यहाँ साथ रह-रहकर ठीक कर लूँगा मैं खुद को। मुझे इन सब पर और खुद पर इतना विश्वास तो है।
बहरहाल दिन-भर वही सीन था फिर से - 'व्हाट अ बिजी डे' वाला। वर्कशाॅप थी एक बालोतरा एलआरसी में सिवाना और बालोतरा ब्लाॅक के सेलेक्टेड टीचर्स की। सुबह लगभग सवा दस बजे हरीश जी के साथ मैं भी पहुँच गया था वहीं। कोमल जी ने शुरुआत की 'क्रियाशील पुस्तकालय में शिक्षक की भूमिका' विषय पर और इतने अच्छे ढंग से कि हर एक शिक्षक को इत्तर लगी ये विभाग की किसी और कार्यशाला से। शिक्षकों की सहभागिता इस कदर थी कार्यशाला में की लग ही नहीं रहा था कि चर्चा-सत्र है या वार्ता-सत्र। प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में पुस्तकालयों की आवश्यकता, परेशानियाँ और उनको सुलझाने को किये जाने वाले प्रयासों के इर्द-गिर्द ही रहा पूरा दिन। बीच में दो बार चाय और एक बार लंच के लिए ब्रेक के अलावा हम सबके मन में सुबह साढ़े दस से शाम साढ़े चार बजे तक पुस्तकालय ही दौड़ता रहा। हमारे काॅर्डिनेटर दिनेश जी का बर्थ-डे था तो केक और कुछ स्नेक्स ले आये सौरभ जी और हरीश जी शाम को। केक कट करने के बाद बस में बैठकर आ गये अपने सिवाना रात आठ बजे। रसोई का खूब सारा सामान खरीद लिया है बाजार से अभी।
मन ठीक ही रहा। संवाद की कमी महसूस हो रही है घरवालों से। बातें जब बस औपचारिक ही होने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि कुछ और काम करने की जरूरत है अभी। कल गणेश चतुर्थी है। गजानन जी के दिन से कोशिश करते हैं एकांत साधने की भी और कुछ नये की भी। बाकी सब ठीक है। उठा-पटक चलती रहती है मन में विचारों की। मनोहरा थामे हैं मुझे आसमां की तरह ही। गाना बज रहा है ब्लू-टुथ स्पीकर पर - जैसे सूरज की गर्मी से तपते हुये तन को मिल जाये तरूवर की छाया/ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया/मेरे राम...
शुभ रात्रि...
- सुकुमार
39/08/2022
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