सिवाना डायरीज - 2
सिवाना_डायरीज - 2
'हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न पाऊँ, मगर विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की सदैव रक्षा करूंगा।' - फ्रांसीसी विचारक वाल्तेयर का यह कथन राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय वाले पृष्ठ पर एक अरसे से पढ़ता आ रहा हूँ मैं। मगर कितना उतार पाया हूँ खुद में, इसका आकलन खुद के लिए तो मुश्किल सा ही है। पहले कभी एक बार हमारे अश्विनी सर का आलेख पढ़ रहा था। कह रहे थे - हमारे यहाँ व्यक्तित्व के युद्धों से ज्यादा 'वादों' के युद्ध है। आदमी खुद क्या सोचता है, करता है, इस सबसे ज्यादा वो परेशान रहा है पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, लिंगवाद, सामंतवाद, पृथकतावाद, द्विभाषावाद, अवसरवाद, आध्यात्मवाद, मार्क्सवाद, नक्सलवाद, समष्टिवाद, शून्यवाद और भी ब्ला-ब्ला-ब्ला वादों से। कुछ खाँचे जो इंसानों ने ही बनाये हैं, समझ विकसित हो जाने पर इंसान ने या तो खुद को या दूसरों ने उसको इन खांचों में डाल दिया जाता है। और फिर एक ठीक समझ वाला इंसान भी अपने वाद की विरुदावलियाँ गाने वाला बन जाता है। मेरा सोचना है कि काॅकटेल बन जाने या यूज करने से क्यों डरते हैं लोग! जबकि सबको पसंद आती है वो।
बहरहाल दूसरा दिन, एक और खूबसूरत दिन। होटल कीर्ति में ही आलू-पराठा विद दही निपटा के ऑफिस पहुंचे। कुल 35 ग्राम पंचायतें हैं हमारे सिवाना में। 'हमारा सिवाना!' हाँ, हमारा सिवाना। दो दिनों भी पूरे नहीं हुए और मोहब्बत हो गई है इससे। वैसे ही जैसे 'एक दीवाना था' मूवी का डायलाग है ना - 'सोचने समझने से सब मिलता है। पर प्यार तो बस ऐसे ही हो जाता है। ऐसे ही बिना जरूरत के जरूरत बन जाता है। ऐसे ही आँखों के रास्ते दिल में डायरेक्ट उतर जाता है। आबरा का डाबरा। सट्टाक से...' सिवाना मुझे अपने पुर सा लगने लगा है। बस इस होटल के कमरे से निकाल अपने किसी घर में पनाह दे दे जल्दी से ये। तो कुल 35 पीईईओज है यहाँ, जहां हमें बुनियादी शिक्षा पर काम करना है। बारिश होने की वजह से फील्ड में नहीं जा सके तो सुरेश जी के आइडिया से ऑफिस के बाहर ही क्यारी बनाकर कुछ पौधे लगा दिये। साथी सुरेश जी और हरीश जी हर मायनों में श्रेष्ठ कलीग्स हैं। एक्साइटेड हूँ कि खूब सारा सीखने को मिलेगा इन दोनों से।
व्यक्तिगत तौर पर फिर वही घिसा-पीटा दिन। कुछ भी ढंग से न हो पाया। एकांत को साधना क्यों इतना मुश्किल लग रहा है, समझ नहीं आ रहा। मनोहरा एकमात्र सहारा लगती है जो टूटती-लटकती किसी बेल को सीधी खड़ी लकड़ी के जैसे सहारा देती प्रतीत होती है। 'वाचाल' हो जाने वाली मेरी प्रवृत्ति पर नियंत्रण के नये प्रयास करने पड़ेंगे शायद। भैया ने भी उदयपुर जाॅइन किया है। अभी दोनों भाई घर से दूर हैं। जीवन में आगे क्या होगा, चिंता होने लगी हैं। शायद यही चिंता शारीरिक तौर पर भी कमजोर किये जा रही है। कुछ भी हार्ड-वर्क न करने के बावजूद बस नींद में जाने का मन है ग्यारह बजे ही। नीद आने भी लगी है। आज डी-डे मूवी का गीत चलाया है। बोल है- 'एक घड़ी और ठहर के जां बाकी है/ मेरे लब पे तेरे होने के निशां बाकी है...'
गुड नाईट। जय सियाराम...
-सुकुमार
17/08/2022
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