सिवाना डायरीज - 7

 सिवाना_डायरीज - 7


लड़के-सी दिखने वाली एक लड़की टोपी लगा उदास-सी बैठी थी आज कक्षा पाँच में। सबके अपने नाम बताने के क्रम में उसने जब मनीषा बोला, तो मेरे साथ-साथ सुरेश जी भी थोड़े से सरप्राइज हुये। टोपी लगाने का कारण पूछने पर पता चला कि अभी दस-पंद्रह दिनों पहले पिताजी गुजर गये हैं उसके। ग्यारह भाई-बहनों के परिवार में से चार सबसे बड़ी बहनों की शादी हो चुकी है। दस बहनों के बाद ग्यारहवां भाई है। अंतिम कालांश में एचएम ईश्वरसिंह जी से और पता चला कि माँ भी नहीं हैं उनके। एक भाई और तीन बहनें, कुल चार लोगों के नाम अभी स्कूल की कुल नामांकन संख्या 207 में शामिल है। मगर विद्यालय में इनका उपस्थिति प्रतिशत मात्र 15-20 है...

लौहारों का वास में रहने बटकी कभी-कभार ही स्कूल आ पाती है क्योंकि उसकी माँ कहीं कमठाने पर जाती है, तब उसे उसके डेढ़ साल के भाई का ध्यान रखना होता है घर पर...

मूलतः जालौर की आहोर तहसील के रहने वाले निजाम की माँ को पिता खूब पीटते हैं, तो वो अपने बेटे को लेकर पीहर आ गई है। यहाँ अपने मामा की बेटी आनिया के साथ पाँचवी कक्षा में ही दाखिला ले रखा है। बारी-बारी से दोनों को बकरी चराने जाना होता है, तो केवल टेस्ट्स या परीक्षाओं में ही एक साथ आ पाते हैं वे स्कूल...

राजू लंच के बाद कोई भी जतन कर स्कूल से भाग जाता है क्योंकि खेत पर काम कर रहे उसके पापा को खाना देने जाना होता है...

प्रेमी अपने घर के पास वाली सरकारी स्कूल में नहीं जाने का कारण बताती है कि वहाँ मेडमों को मेक-अप और लिपस्टिक से ही फुरसत नहीं है, और ये दूर है तो कई बार आने में खूब देरी हो जाती है...

दो-तीन बच्चियाँ जो मैले से कपड़े पहनी थी। मन बड़ा साफ था उनका। एक बोल रही थी कि बेरे(खेत) में माँ की मदद करने के बाद यहाँ आना पड़ता है। कविता मेडम के जैसा बनना है मुझे। इसलिए लेट भी आती हूँ पर आती जरूर हूँ...


वंडर स्टाफ काॅलोनी की लग्जरियस जिंदगी से इत्तर मैं यहाँ सच्चा भारत देख रहा हूँ। हम शहरों में पढ़े-लिखे लोग जानें कब समझ पायेंगे इनकी व्यथाएँ। हमारे मन में तो गाँव भी बाॅलीवुड की फिल्मों वाले हैं। सच्चाई यह है कि बहुत कम गाँव ऐसे हैं जहाँ सफाई पंचायत वेबसीरीज के फुलेरा जैसी होगी।   अब यहाँ आया हूँ तो लगता है जुट जाना है अब इनका जीवन-स्तर सुधारने में।

सिवाना ग्राम पंचायत के ही उच्च प्राथमिक स्कूल, फतड़ाई की नाडी में गये थे कल। पहली बार घंटे-भर बच्चों से इंटरेक्शन का अवसर भी मिला। जिला स्तर पर उत्कृष्ट विद्यालय से सम्मानित है ये स्कूल। एचएम ईश्वरसिंह जी बहुत काम करते हैं एकेडमिक और एज्युकेशनल ग्रोथ पर। मगर बुनियादी जरूरतों में शिक्षा से इत्तर और क्या कर पाता है एक राजकीय अधिकारी। इंफ्रास्ट्रक्चर भी अच्छा है स्कूल का और स्टाफ भी पूरा। बच्चों को घर से खींचकर स्कूल तक लाने के इंतजाम भी पूरे हैं स्टाफ के। मगर जो कंडीशन्स मैंने ऊपर बताई हैं, उनके साथ एक सामान्य शिक्षक कैसे डील करे! प्रश्न ये हैं।


बहरहाल एक और अच्छा दिन। सुबह-सुबह एक-चौथाई नाप आया सिवाना दुर्ग। हरीश जी लौट आये हैं घर से। टिफिन सेंटर वाले सूखी सब्जी को बड़ा ऑयली और मसालेदार कर देते हैं। नये घूमें रहना अच्छा लग रहा है। नीचे वाले हाॅल में भी प्लाई लगवाकर मेरे लिए सेपरेट कर दिया है बाऊजी ने। ऑफिस में नई वर्कशाॅप्स और कंसाइनमेंट्स की चर्चा है। मैं भी घुलने की कोशिश कर रहा हूँ सुरेश जी और हरीश जी मैं।


मन बीच में रहा दिन-भर। ठीक और अठीक के बीच। भैया ने आबू रोड़ जाॅइन कर लिया है। पापाजी बहुत मिस कर रहे हैं दोनों को घर पे। उनका कलेजा समझ सकता हूँ मैं जब लंच के टाईम वो ऑफिस में बैठे-बैठे ही बेवजह काॅल करने लगे हैं। मनोहरा के साथ सतही तौर पर असहमतियाँ उभरती रहती है। मगर तल पर कनेक्टिविटी हो जाने का फायदा है कि फाइनल इंटेंशन समझ पाते हैं हम एक-दूजे का। बाकी सब ठीक चल रहा है। नींद बिना बताये भीतर घुस आई है। मोबाइल में गाना बजा दिया है - खुशबुओं से तेरी/यूँ ही टकरा गये/चलते-चलते देखो ना/हम कहाँ आ गये/रंग थे, नूर था/ जब करीब तु था/एक जन्नत सा था ये जहां...

शब्बा खैर...


- सुकुमार 

22/08/2022

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