सिवाना डायरीज - 9
सिवाना_डायरीज - 9
'History is the one weak point in Indian Literature. it is in fact non existent. The total lack of historical sense is so characteristics that the whole course of Sanskrit literature is darkened by the shadow of this defect, suffering as it does from an entire absence of Chronology.' - कोई पाश्चात्य प्राच्यविद्या विशारद हमारे देश के बारे में यूँ कह देता है तो, एक बार तो अनडाइजेस्टेबल हो जाता है हमारे लिए। हम सोचते हैं कि क्या ठेठ पन्द्रहवी शताब्दी में कालीकट में कदम रखने वाले युरोपियन बतायेंगे हमें हमारा इतिहास! उनके यहाँ मिट्टी में प्राण-तत्व था या नहीं था, असंख्य सभ्यताएं पनप गई थी तब भारत में। मगर मेकडाॅलन ने कुछ गलत कहा है क्या इस पंक्ति में? हाँ, केवल कालक्रम को ही सारी ऐतिहासिक समझ मान लेने में उनका भी दोष है, मगर हमें ये तो स्वीकारना ही चाहिए ना कि कालक्रम वाला दोष जो न होता अगर हमारे इतिहास लेखन में, तो साहस हो पाता किसी बाहरी का ऐसी बात कह देने का! तभी तो ग्रंथ 'वीर-विनोद' के रचयिता हमारे राजपुताने के बेटे महोपाध्याय कविराज श्यामलदास ने भी अपनी पीड़ा व्यक्त की थी इस विषय में। उन्होंने लिखा था कि - 'हमने बहुतेरा चाहा, कि महमूद का हाल हिंदुस्तानी पुस्तकों से लिखा जावे, लेकिन इसका जिक्र कहीं नहीं मिला, क्योंकि हिदुस्तान में पहले तवारीख लिखने का काइदह नहीं था।'
खैर, समय के पन्नों पर अब तो तवारीख दर्ज हो जाने का चलन है। आने वाले बखत में आज की तवारीखों में हम कितने और कैसे छापे जायेंगे, कोई नहीं जानता। मेला-मैदान स्कूल में खूबसूरती से बिता एक और दिन। लंच के टाईम दूसरी कक्षा का छात्र एज़ाज मेरा खास दोस्त बन गया है। पहली कक्षा की मंजू, प्रेमी और भावना मैदान में ही गोला बनाकर बातें करते-करते पिछले पंद्रह मिनट से मिट्टी में अपने प्लेटें रगड़ रही है। तीसरी कक्षा की लीला के छोटे भाई गणेश के नाक बह रही है, जिसे वो बार-बार अपनी घघरी से साफ कर रही है। गणेश स्कूल में केवल चौथे पीरियड में आता है और मिड-डे मील वाला खाना खाकर वापस चला जाता है। प्री-प्राइमरी की दो छोटी-छोटी बच्चियाँ जम्पिंग वाले खेल की मुद्रा बनाये हैं अपने हाथों से। कोई कूद ही नहीं रहा उन दोनों के बीच से। दो-तीन बड़े बच्चे पास आकर बहुत ही प्यारी टोन में 'गुऽऽड माॅऽऽर्निंग सर' बोलकर धोक लगा जाते हैं मेरे। एकदम से पीछे खिसक जाता हूँ मैं स्वभावतः। पता नहीं क्यों अजीब सा लगता है ये। उनमें से एक को उसकी क्लास पूछने पर जवाब आता है - 'पाँसवी...।' एक लड़की जो बार-बार ये बोल रही थी कि सर आज हमारी क्लास में आना, उससे उसकी क्लास पूछी तो बोली - 'सठ्ठी...।' इसी तरह दो-तीन ने अपनी क्लास 'सौथी' भी बताई। शायद 'च' और 'छ' को 'स' उच्चारित करने की आदत हो गई है इधर।
लंच के बाद डिस्ट्रिक्ट ऑफिस से एडमिन वाले रेखाराम जी आये हैं आज इलेक्ट्रिशियन को लेकर। लाईट से रिलेटेड जितने भी इश्यूज हैं हमारे एलआरसी पर, आज सब खत्म कर जाने का इरादा है उनका। हर खिड़की और दरवाजे पर पर्दे भी लगवायेंगे। बैंगलोर से लेपटाॅप भी आ गया था मेरा बाड़मेर ऑफिस में। रेखा जी वो भी ले आये हैं। रात को आठ बजे तक वहीं रहा मैं भी। फिर सुरेश जी के साथ निकल आया।
मन मेरा डरा-डरा सा रहता है अभी भी। सब चीजें ठीक से घट रही है फिर भी। एकांत अकेलेपन में तब्दील हुये जा रहा है। घर फिर से घर न लगकर बस चारदीवारी सा लग रहा है। आये, खाना खाया, सोये, उठे और नहाकर चल दिये। बाड़मेर मुझे बाई-डिफाॅल्ट मिला है, मगर अब यहीं बस जाना चाहता हूँ बस, बशर्ते थोड़ी और साफ सुथरी हो जायें सड़कें। बहुत काम किये जाने की जरूरत है स्कूल्स में। मुंशी प्रेमचंद जी की कहानियों में गरीबी और बेबसी पढ़-पढ़कर आँसू बहाने वाले हम लोग, धरातल पर आज भी जब सरकारी स्कूल्स में पढ़ने वाले किसी अभावग्रस्त बच्चे के परिवार की तह में जायेंगे ना, कुछ अंतर नहीं पायेंगे। खपा देने का मन है पूरा जीवन इन सबके बीच अभी तो। बाकी समय पर छोड़ता हूँ। ग्यारह बज गये हैं, सो जाते हैं। मोबाइल में गीत चला दिया है - 'दिल है छोटा सा/छोटी सी आशा/मस्ती भरे मन की/भोली सी आशा/चाँद-तारों को छूने की आशा/आसमानों में उड़ने की आशा....
सर्वे भवन्तु सुखिनः। शब्बा खैर।
- सुकुमार
24/08/2022
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