सिवाना डायरीज - 19
सिवाना_डायरीज - 19
'पूर्वाग्रह एक दीमक है। यह व्यक्तित्व को खोदता है। इसलिए नहीं कि इसकी भूमि उर्वरित हो। अपितु इसलिए कि खोखली हो जाये इसकी जमीन। विकास की सड़क पर लगा ये वह पुराना हाॅर्डिंग है, जिसकी प्रासंगिकता सड़क के किसी पेच-वर्क के समय की है। एक सीधी-सपाट सड़क पर 'सावधान! आगे गड्ढ़ा है। कृपया धीरे चलें।' का बोर्ड राहगीरों की गति ही कम करेगा।'
-एक बार फिर किसी किताब, इंटरव्यू या आर्टिकल से नहीं उठाया है मैंने क्वोट! मन से लिखा है। कोशिश में हूँ कि कुछ ठीक तो मैं भी लिख पाऊँ। मसला ये है कि कल एक शख्स से मिला था। गज़ब की पर्सनलिटी है साहब। आर्मी में दो साल सर्विस देकर राजस्थान के शिक्षा विभाग में आये हैं। सीधे शब्दों में यूँ भी कह सकते हैं स्वैच्छिक अग्निवीर। टैलेंट कूट-कूटकर भरा हुआ। बस एक मानसिकता जो मुझे ठीक न लगी उनकी कि हमारे देश में सब के सब लोग भ्रष्ट है। कोई भी ठीक नहीं हैं, कोई भी। ना मैं, ना आप और ना कोई और भी। मतलब ना कि शक या पूर्वाग्रह इस कदर कि आदमी खुद को भी मन से चाह न पाये। खैर सीखना-सीखाना चलता रहेगा। दुनिया एक ही तरह के लोगों से थोड़े बनी है! खूब लोग आयेंगे और सब अपनी-अपनी तरह से जिंदगी सिखायेंगे हमें। हमें चुन लेने हैं उनमें से अपने तरीके।
बहरहाल यहाँ आने के बाद तीसरा शनिवार था। लांग-टर्म प्लानिंग के हिसाब से खुद पर काम करने का दिन। ऑफिशियली छुट्टी थी, मगर सिवाना में ही हूँ तो उच्च प्राथमिक विद्यालय, खेतसिंह जी की ढाणी जाकर आया। नो बैग-डे था आज, तो बच्चे एंजॉय करने के मूड में ही आते हैं। अपन भी उसी उद्देश्य से वहाँ पहुँच गये। पहली बार पहली कक्षा के बच्चों के बीच बैठा घंटा भर। लगा कि गोकुल में आ गया हूँ। शिवनिया जिसका एडमिशन हुआ ही नहीं हैं, बस मुस्कुराती रहती है। मोनिका को चार कविताएँ आती है। कांता दसों बार बता चुकी है कि सुगना को कुछ नहीं आता। जालमसिंह को डाॅक्टर बनना है और ममता को इसी स्कूल की मैडम। गतिविधि वाला एक खेल कराया और मिलकर खूब सारा हँसे हम सब। बाद में टीचर जगदीश जी से ढेर सारी गपशप के बाद लौट आया घर।
गैस सिलेंडर आ गया है घर में, तो लग रहा है पूर्ण हो गई है गृहस्थी। पाव-भाजी वाले लोभचंद जी गजब के अच्छे आदमी है। अपना भरा हुआ सिलेंडर दे दिया। जब मन करे, चाहे जो बना सकते हैं अब। आटा, छलनी, लौंग-कालीमिर्च और पापड़ लाना भूल गया था पहले। वो भी ले आया हूँ अब। सोच रहा हूँ कल रखा जाये दूध उबालने का कार्यक्रम। खीर बनाकर खाई जाये आरव और आर्यन के साथ। देखते हैं कितना हो पाता है।
मन ठीक नहीं है। एकांत साधना दूर की कौड़ी है। अकेलापन घेर रहा है अभी तो। काटता है, कचोटता है और सोचने नहीं देता कुछ भी अच्छा। माँ चारभूजा जी के रास्ते पर पैदल है और मेरा एक मन उनके साथ हो लेना चाहता है। पतझड़ जैसे पेड़ का ही नहीं चिड़िया का भी दुख है। ठहरकर बदबूदार हो जाना जैसे पानी के अकेले का नहीं, उस ज़मीन का भी दुख है। वैसे ही यूँ ठीक से न जी पाना, मेरे मन का ही नहीं, मेरी कलम का भी दुख है। कहाँ लिखा जा रहा है कुछ भी ठीक। प्रेम पर कविता लिखे एक अरसा हो गया हैं। पूज्य गोपाल जी दाधीच की आगामी पुस्तक का शीर्षक याद आ रहा है अभी तो कि - 'कब छंटेगा ये कोहरा...'
शब्बा खैर...
- सुकुमार
03-09-2022
शानदार.... लेखन शैली
ReplyDeleteलिंक जैसा लम्बा सफर तय करके यहाँ तक आकर मोटिवेट करने के लिए खूब सारा शुक्रिया सर...🙏
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