सिवाना डायरीज - 34
सिवाना_डायरीज - 34
"तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले!!!"
-सुनते ही अपनी आँखें बंद करके उसने यूँ महसूस किया जैसे वह इस ज़मीन का सबसे उपजाऊ टुकड़ा हो।
"क्योंकि हमें अब मिलना था। यहाँ। इस छोटे से शहर में। पहली बार उस छोटे से पल के लिए।
-और ज्यादा कुछ न बोल सका वो।
"जानते हो! मेरे लिए आये हो तुम इस शहर में। पहली बार जब बात हुई थी, तभी विश्वास कर लिया था मैंने अपने मन पर।"
-वह चुपचाप सुने जा रहा था।
"अच्छा ये बताओ आलू-पराठा पसंद है तुम्हें? मैं कल नाश्ते में बनाऊँ!"
-'हम्म' के अलावा कुछ न निकला मुँह से उसके कि अगला सवाल आ गया।
"दही के साथ पसंद है तुम्हें या अचार के साथ?
-अब दस सैकंड सोचकर बोला वो।
"तुम्हारे साथ।"
-बस यह ही कह पाया वो।
"मैं यही एक्स्पेक्ट कर रही थी तुमसे। लव यू। अब सुनो चुपचाप कल सुबह सात बजे से पहले आ जाना ऑटो स्टेंड पर अपना ब्रेकफास्ट लेने। हम पास रह पायेंगे इसी बहाने दो-तीन मिनट। "
-उसने हामी भर दी है।
'पराठे लेने जायेगा, तब कौनसी ड्रेस पहनेगा? सुबह नहाकर जाये या ऐसे ही चला जाये? चप्पल पहने या श्यूज पहन ले इतना जल्दी ही और पैदल जाये या बाईक पर?"
-और मन की इसी उधेड़बुन में वो रात को देर तक सो नहीं पाया है।
सच में प्रेम आदमी को महसूस करवा देता है कि वह सबसे महत्वपूर्ण शख्स है धरती का।
खैर, अच्छा बिता छुट्टी वाला दिन। खुद पर तो नहीं कर पाया काम। मगर नये दोस्त बनाये कुछ। नई चीजें जानी सिवाना की। इन्द्राणा गर्ल्स सीनियर सैकंडरी में टीचर रघुनन्दन जी अपने पास के टोंक वाली देवली के हैं। यहाँ भी एक गली आगे ही रहते हैं मुझसे। सुबह ही साफ कह दिया कि आज बाफला-बाटी और दाल अपने घर ही बनेगी। नहा-धोकर आ जाना 12 बजे तक। थोड़ा जल्दी गया ये सोचकर कि दोनों मिलकर बनायेंगे। मगर वहाँ तो तैयार थी दाल-बाटी। बहुत मन देते हैं वो अपने भाई की तरह। सच बोलूँ तो कई दिनों बाद तृप्ति मिली भोजन के विषय में तो। वैसे भी मैं डाई-हार्ट फैन हूँ दाल-बाटी का तो। दाल कटोरी में न लेकर सीधे थाली में ली गई कई दिनों बाद। जो स्वादिष्ट बनाई रघु जी ने कि अपने सामर्थ्य से ज्यादा खा लिया खाना। इसी बीच एक उनके मित्र यहीं श्रीजी हाॅस्पीटल के मैनेजर दिनेश जी का काॅल आया, तो शाम को किसी होटल में डिनर करने की बात उन्होंने वहीं फोन पर ही फिक्स कर ली। और मेरे लिए भी बोल दिया कि हम दो लोग साथ आयेंगे। इतना मन देते हैं कि मुझसे यूँ भी न पूछा कि चलना पसंद करोगे या नहीं। दिन में थोड़ा-बहुत पढ़ लेने के बाद हम फिर निकल लिये। मवड़ी से आगे होटल भवानी में डिनर करके जब तक लौटे, तीन नये दोस्त बन चुके थे अपने।
मन ठीक राह चल रहा है। सुबह और शाम को मिलाने वाला दिन थोड़ा तो रघु जी ने और थोड़ा मन में अच्छे चल रहे अहसासों ने छोटा कर दिया है। सुकून चाहता है ये, और मिल रहा है अभी तो। जिंदगी के कैनवास पर अब ऑपेसिटी बढ़ गई हो जैसे मुस्कुराते चेहरों की। मुझे और क्या चाहिए! सोने में लेट हो गया हूँ आज। फिलहाल यही कहना ठीक लग रहा है - जिंदगी जिंदाबाद...
शुभ रात्रि...
- सुकुमार
18-09-2022
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