सिवाना डायरीज - 38
सिवाना_डायरीज - 38
'कुछ लोग जीवन इतना यथार्थ जीते हैं कि दूसरों के चेहरों पर प्रसन्नता लाने के लिए मनुष्य में जो कृत्रिमता आवश्यक होती है, वे उसे भी भूला देते हैं।'
-अजीब सी है ये दुनिया इस मामले में। 'मैं ऐसा ही हूँ। खरा-खरा। किसी को सच्ची बात चुभे तो चुभे।' - बोलकर हम खुद को ही दूर कर देते हैं अपनेपन से। लाॅकडाउन के दौर में वागर्थ में एक प्रसंग पढ़ा था सम्पादकीय में कि दुनिया में झूठ सच के कपड़े पहनकर शासन कर रहा है और सच झूठ के कपड़े पहनकर दुनियाभर में अपनी बात कहता डोल रहा है कि मैं सच हूँ, मैं सच हूँ। मेरा अपना सोचना बस इतना है कि जिंदगी इतनी छोटी भी नहीं है कि अपना एक रवैया जिसे हम अपना स्वाभिमान भी कह देते हैं, से पूरी जिंदगी ठीक से निकाली जा सके। सौ बात की एक बात यह है कि स्वाभिमान और अहंकार के बीच की पतली रेखा कोई-कोई बिरला ही पाट पाता है।
बहरहाल, ठीक-ठाक दिन। कुछ पाया और बहुत कुछ खोया भी। इसी खोने के बाद अपने निर्णय बदले हैं मैंने कई दफा। यूपीएस, थानमाता, हिंगलाज जाना हुआ आज। सरोज मे'म एचएम है पिछले चार सालों से। दस सालों से एक ही स्कूल में हैं वे। कार्यशाला के पहले चरण में मिला था मैं उनसे। वहाँ सक्रियता देखकर पूर्वाग्रह बना लिया था मैंने कि बहुत ज्यादा एक्टिव नहीं है वो। मगर आज जब स्कूल गये, तब मन का सोचा सारा उल्टा निकला। खूब डेडिकेटेड है वे बच्चों के लिए और इंटलीजेंट भी। लंच के बाद ऑफिस में ही काम। शाम होते-होते फिर बिगड़ गया अपने मन का खेल। खैर, जब डिपेंडेंसी दूसरों पर होती है तब अक्सर होता है ये।
सच कहूँ तो पोस्टर्स वाली जिंदगी जी है मैंने। सब-कुछ रंग-बिरंगा। हैप्पी-एंडिंग सी दिखाने के लिए जोड़-तोड़ वाली। मन बिल्कुल भी ठीक नहीं है। अभी सो जाना चाहता हूँ। शुभ रात्रि...
- सुकुमार
22/09/2022
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