सिवाना डायरीज - 39

 सिवाना_डायरीज  - 39


'भोजन करके पधारियेगा।'

या

'खाना खाकर आये हो या जाकर खाओगे!!!'

-साल मुझे ढंग से याद नहीं। शायद 2017 या 2019

8 हो, मगर हाँ, पूजनीय सरसंघचालक जी के भीलवाड़ा प्रवास पर पूरे विभाग के एकत्रीकरण का कार्यक्रम था। एकत्रीकरण में एक भी गाँव न छूटे, इन तैयारियों में थे हम भी सब। ऑफिस से लौटकर शाम को यही कोई 07:30 निकला था मैं अकेला घर से सांगवा, तिलोली और एकलिंगपुरा में सम्पर्क के लिए। ज्योतिष-नगरी कारोई का आबादी क्षेत्र शुरू होने से तुरंत पहले ही दायीं वाली सड़क जाती है सांगवा के लिए। घूम गया। सुनसान सड़क और घुप अंधेरा था। करीबन सात-आठ किलोमीटर गाड़ी चला लेने के बाद भान आया कि शायद खूब आगे आ गया हूँ। आस-पास कोई घर या बस्ती भी न दिखाई दी अंधेरे में। थोड़ा और चलने पर एक कच्चा सा घर दिखा बड़े से दरवाजे वाला। एक पीला लट्टू जल रहा था अहाते में और नीचे पीली लीपी हुई थी। साँकल बजाने पर एक बुजुर्ग सी माता आई पीछे वाले छप्पर से निकलकर। राम-राम कर सांगवा का रास्ता पूछा तो बताने लगी कि एक मील पीछे छूट गया है। मैं धन्यवाद देकर मुड़ा कि वह हमारी मेवाड़ी में बोली - "भाया, खट उं आयो, कुण क जाणो थन हांगवा? अंदारो वेग्यो। थूं एक काम कर। थोड़ी रोट्याँ खा ल पेली। रोट्याँ खा अन फच परो जाजे।" ठहर गये मेरे पैर तब। न नाम पूछा उन माँ ने मेरा और न जाति। बस इतना जानती थी कि राह चलता कोई है, और रोटी का आग्रह। हालाँकि खाना नहीं खाया मैने वहाँ, मगर मैं तृप्त होकर निकला वहाँ से। यकीन बढ़ा कि मनखपना बचा है लोगों में अभी। घरों के बाहर 'कुत्ते से सावधान' लिखने वाला शहर होता ये कोई तो रिश्तेदारी को भी मन ही मन कह रहा होता - "खाना खाकर आये हो, या जाकर खाओगे!!!" गाँव की बार मुझे इसलिए भी ठीक लगते हैं...


बहरहाल, अच्छा दिन। अच्छा तो नहीं था, शाम होते-होते मैने किया ठीक इसे। सुबह प्राथमिक विद्यालय, कानसिंह की ढाणी गया था। अपनी अम्बा दीदी की स्कूल। स्केफोल्डिंग में मेरे जिम्मे इस स्कूल को लेने की बात समझा आया एचएम और दीदी को। अब अगली बार से बुक्स की मैपिंग और प्रिंट-रीच पर काम शुरू। लंच बाद ऑफिस आकर हैंड-बुक देखी गणित की। प्रिंट-रीच का सारा मैटेरियल यहीं तो मिलेगा। दलिया बनाया था लंच में। गरमागरम घी डालकर जब खाना हो, फिर मुझे कुछ और नहीं सूझता। शाम को घर आकर उसी को गर्म दूध के साथ। मने पेट में सब अच्छा-अचछा ही गया आज तो। 


मन ठीक न था दिन-भर। खुद को व्यवस्थित करने की कोशिश में लगा है। कुछ पहुँचने भी लगा हैं वहाँ तक। कई बार सोचता हूँ परमानेंट मार्कर का लिखा थिनर से मिट जाता है तो फिर ऐसा कुछ मन के लिए भी होगा जो अवांछित को हटा सके! खैर, कागज पर रबर रगड़ने से लिखा हुआ मिट जाता है, मगर पेंसिल की कागज पर चुभन बनी रहती है। सो जाते हैं अब। गुड नाईट...


- सुकुमार 

23-09-2022

Comments