सिवाना डायरीज - 40

 सिवाना_डायरीज  - 40


'बरसत हरसत सब लखे, करसत लखे न कोय।

तुलसी प्रजा सुभाग से, भूप भानु सो होय।।'

-समाजवाद की अनगिन परिभाषाओं और उदाहरणों के बीच आज के दैनिक नवज्योति अंक में कुछ और अच्छी खुराक मिली मुझे। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की ऊपर वाली पंक्तियों का समाजवाद काफी पहले कुमार विश्वास सर के एक उद्बोधन में समझ चुका हूँ। राम मनोहर लोहिया जी ने आधुनिक समाजवाद को अपने ही ढंग से देखा और दिखाया है। मगर जो आज पढ़ा, वो कुछ ज्यादा ही ठीक लगा मुझे। अग्रवाल समाज के प्रणेता महाराज अग्रसेन जी की भी जयंती है परसों नवरात्रि स्थापना के दिन ही। नवज्योति में खूबसूरत लेख आया है आज एक 'जयंती-विशेष' में। बताया गया है कि समाजवाद की एक परिभाषा अग्रसेन जी के समय वांछितों के लिए 'एक रुपया एक ईंट' भी थी। बाहर से आकर नगर में बुने वाले परिवार के लिए नगर का प्रत्येक कुटुम्ब एक रूपया और एक ईंट देगा, जिससे नवागंतुक परिवार अपना समुचित प्रबंध कर सके। अथर्ववेद का एक श्लोक है - 'शत-हस्त समाहार(सहस्त्र हस्त संकिर), जिसका अर्थ है - सौ हाथों से कमाकर हजार हाथों में बांट दो। महाराज अग्रसेन की शासन पद्धति का महत्वपूर्ण मंत्र रहा ये। वैसे समाजवाद विषय की ही जब बात करता हूँ, तो एक और वाकया याद आया है मुझे आज का ही। एक अंग्रेजी न्यूज-चैनल की क्लिप थी जिसमें पोलैंड के एक सांसद कह रहे थे - "युक्रेन के लाखों शरणार्थियों के लिए हम अपने यहाँ काॅलोनी बना सकते हैं, मगर एक सिंगल मुस्लिम आदमी के लिए कभी नहीं।" क्या गलत और क्या सही में नहीं जा रहा, मगर जीवन-पद्धति या यूँ कहें किसी भी मत के लिए ऐसे पूर्वाग्रह पर हर एक पक्ष को सोचने की आवश्यकता है। बाकी सब ठीक है।


बहरहाल,  शनिवार मने स्कूल्स में नो-बैग डे। ऑफिशियली हमारे भी लीव थी, मगर हो आये प्राथमिक विद्यालय, निम्बेश्वर में। एचएम दूदाराम जी बहुत सहज व्यक्तित्व के धनी है। बच्चों के साथ खूब सारी बातें, खेल और गीत के बाद मिलकर हँसे भी। लंच के बाद घर आकर यूँ सोया कि शाम 05 बजे नींद खुली। लार्ज स्केल केम्प में सिरोही गये हरीश भाई और साथ के टीचर्स के लिए गांधी चौक पहुँचा 06 बजे और उसके बाद रात को लगभग 08:30 बजे तक तक हरीश भाई के साथ ही। पहली बार काॅर्ड-काॅफी पी ली गई है सिवाना में आने के बाद आज ही। 


मन बीच-बीच में हैं ठीक और अठीक के। बातों-बातों में जब सिर टिकाने के लिए मन आपका सामने वाले की बाँहें मांग रहा होता है और उत्तर मिले - "कहीं भी टिक लो, इतनी बड़ी धरती है", तो मन ठहर ही जाता है। मन सोचने लगता है कि पूछा ही क्यों मैंने ये। खैर सबका अपना-अपना मन। अपना भी और सामने वाले का भी। सीखने की जरूरत है मुझे दुनिया। सीखूंगा जल्दी ही। अभी नींद आई है। शब्बा खैर...


- सुकुमार 

24-09-2022

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