सिवाना डायरीज - 48

 सिवाना_डायरीज  - 48


'भारत में कुछ मंदिर तो अपने आप में ट्राॅमा सेंटर्स है।'

-उदयपुर की रहने वाली सेवानिवृत्त अध्यापिका 65 वर्षीय रेखा जी को मार्च 2018 में अचानक से लकवा मार गया था। बायोलाॅजी की भाषा में बोले तो पैरालिसिस। उदयपुर के जीएमबीएच, गीतांजलि, अनंता और अहमदाबाद के सिविल, राजस्थान, अपोलो के बाद लेक-सिटी के ही पैसिफिक मेडिकल काॅलेज एंड हाॅस्पीटल्स का ट्रीटमेंट चल रहा है अभी। उनका इकलौता साॅफ्टवेयर इंजीनियर बेटा मनीष बताता है कि संतुष्टि के नाम पर केवल यह सीन था कि माँ जिंदा थी बस। उनके घर के कपड़े जहाँ इस्त्री होने जाते हैं, ड्राई-क्लीन वाले उस श्यामलाल के कहने पर पिछले दिसम्बर से ही चित्तौड़गढ़ जिले के झातला माताजी के मंदिर हर शनिवार रात को अपनी एल्टोस लेकर आ रहे हैं दोनों माँ-बेटे। रात्रि विश्राम वहीं करते हैं और सुबह की साढ़े चार बजे वाली आरती में शामिल होते हैं। मनीष बताता है कि माँ अब बैठने लगी है। अपने हाथ से थाली और गिलास पकड़ने लगी है। झातला माता जी की भभूत पूरे शरीर पर लगाने के पहले दिन से ही दिखने लगा था असर। बकौल मनीष, हाॅस्पीटल्स की मेडिसिन्स बस जिंदा रखे हैं माँ को। ठीक तो जगदम्बा कर रही है। उनके साफ्टवेयर इंजीनियर होने के बाद भी इन चीजों पर विश्वास के सवाल में मनीष केवल यह कहता है कि मरते आदमी को जिंदा कर देने वाला डाॅक्टर भगवान हो सकता है, तो ये मंदिर और ये मूर्तियाँ क्यों नहीं। उसका साफ-साफ कहना है कि माँ की आज की स्थिति मुझे इनके अस्तित्व को नकारने की स्वीकृति नहीं देती। उसने यह भी जोड़ा कि ये मंदिर नहीं ट्राॅमा सेंटर है स्पेसिफिक डिजिजेज के लिए तो।

मुद्दे की बात यह है कि मैं चाहे जितना वैज्ञानिक चिंतन रख लूँ। इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में ऐसे असंख्य ट्राॅमा सेंटर्स हैं। मैंने अपनी आँखों से ठीक होते हुए देखा भी है की श्रद्धालुओं को। हमारे अंचल में भी बीड़े वाले माताजी, बंक्या रानी और गोवटा माताजी जैसे कई हाॅस्पीटल्स हैं जो किसी भी सीएचसी या शहर के निजी चिकित्सालय से ज्यादा मरीज/श्रद्घालु अपने पास रखते हैं और उनकी फीस होती है ठीक हो जाने के बाद माता रानी के यहाँ छोटी सी प्रसादी, जिसका उपयोग वहाँ ठीक होने की कोशिशों में लगे अन्य श्रद्धालु प्रसाद/दवाई के रूप में करते हैं।


बहरहाल तीन दिनों की छुट्टियों का अंतिम दिन। सुबह उठते ही रेडी होकर निकल लिये हम सब चित्तौड़ किले वाली कालिका माताजी और कपासन रोड़ वाली झातला माताजी के दर्शन करने। श्रद्धालुओं के जत्थे पदयात्रा पर थे किला रोड़ पर। चित्तौड़ से अपना ही एक अपनापन है मेरे मन में। ऊपर मंदिर के बाहर फलाहार प्रसाद के लिए खूब सारी समितियाँ सेवा में लगी थी। मैं नहीं छोड़ता मंदिरों के प्रसाद का कुछ भी। राजगिरा आटे की पुड़ियाँ, आलू की सब्जी, मिल्क-रोज, साबुदाने की खीर, फलाहारी खट्टी-मिट्ठी नमकीन और सावे की खिचड़ी, सब-कुछ तो था वहाँ। इस प्रसाद ने अपने लिए ब्रेकफास्ट और लंच दोनों का काम किया। झांतला माता मंदिर में जातरी बहुत ज्यादा थे। ऊपर वाला प्रसंग वहीं से उठाया है मैंने। सब को अपनी बीमारी का ईलाज माता की भभूत में दिखता है, वहाँ रात सोकर सुबह की आरती में दिखता है। कुछ गलत भी नहीं हैं। असंख्य केस हैं वहाँ से ठीक हुए पेशेंट्स के। घर लौटकर अपने पुर वाली ही घट्टारानी और बीड़े वाली माताजी के और हो आये हम। इस बार पापाजी की जगह नानीजी थे साथ। बीड़ेवाली माताजी भी झातला माता की ही ज्योत है। एक तरह से कहें तो हमारे लिए पीएचसी है बीड़ेवाली माताजी और सीएचसी है झातला माताजी। फिर घर आकर अपनी बच्चा-टोली के साथ वेगन-आर अबकी बार नौगावां सांवरिया सेठ के हो आई। और फिर शाम तक घर ही। आज निकलना था अपने सिवाना के लिए,  तो बेग-पैक करने की तैयारियों में जुट गया था मैं। खाना-वाना खाकर अभी बस के स्लीपर में ऊँघ रहा हूँ। नींद आने लगी है।


मन ठीक रहा। मनोहरा की शिकायत यथावत है। कह रही है - "तुम सिवाना में ही ठीक हो, कम से कम बात तो कर पाते हो मुझसे।" खूब सारी व्यस्तताओं के बीच कैसे निकल गए तीन दिन, पता ही नहीं चला। सिया अभी तो हँसने लगी थी, पहचानने लगी थी, फिर भूल जायेगी मुझे। शिवाय ज्यादा ही शैतान हुये जा रहा है। नित्या बटन जैसी आँखों से कंटिन्यू देखते हुए 'मामा-मामा' बोलने लगी है। जिंदगी दौड़े जा रही है। और मैं खड़ा हूँ कि कोई झोंका आये जो डाल दे मुझे भी झटके से दौड़ते जा रहे पाले में। एसी ज्यादा ही ठंडक कर रहा है। ओढ़ना पड़ेगा। चलो सो जाते हैं अभी। 

गुड नाईट...


- सुकुमार 

02-10-2022

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