सिवाना डायरीज - 55

 सिवाना_डायरीज  - 55


'आज फिर दिल ने एक तमन्ना की।

आज फिर दिल को हमने समझाया।।'

-जगजीत सर की गाई गजल की ये पंक्तियाँ हर बार रुला देती हैं। जितना तिरस्कार महसूस कर रहा हूँ, उसका दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं होगा भले। मगर तमन्नाओं का फुलफिलमेंट प्रेम के अलावा कोई कहाँ कर सकता है। बस इसीलिए समझाना पड़ रहा है दिल को बार-बार कि उधर की ज़मीन पर इतना हरापन नहीं ला पाती है तुम्हारी कोशिशें, जितना उधर की एक आवाज ले आती है इधर। कुल मिलाकर जमीर पर लाऊँ बात तो मुद्दा ये है कि कई बार आत्म-सम्मान जैसी कोई शै आकर कचोटती है मन को कि तेरे मन का हो क्या रहा है! कुछ समझ नहीं आ रहा। बीते तीन दिनों से जिस अहमियत की बात कर रहा हूँ, वो सच में शायद है ही नहीं। सम्भलने की जरूरत है।

बहरहाल, आसोज ख़त्म हो गया है और काति चालू। इधर सिवाना-मारवाड़ का तो पता नहीं हमारे इधर तो छोटी बच्चियाँ दिख जायेंगी सुबह-सुबह अब तो पास के किसी तालाब, पोखर या हेंड-पम्प पर काति पूजती हुई। पूरे एक महीना व्रत करने वाली बच्चियाँ इसी बीच एक दिन कद्दू समर्पित करती है मंदिरों में, जिसे दीपावली के अगले दिन अन्नकूट में काम में लिया जाता है। रविवार था तो घर की देहरी पर भी शाम को जा पाया। दिन-भर ऊँघता-बासता रहा पड़े-पड़े कमरे में ही। सच बोलूँ तो इंतजार में था कि अहमियत तो मिले थोड़ी सी। त्योहारों की झड़ी थी आज। वाल्मिकी जयंती, शरद पूर्णिमा और ईद-मिलादुन्नबी। अपन केवल शरद पूर्णिमा एंजाॅय कर पाये। शाम को खीर बनाकर रख दी थी खिड़की में। कल सुबह लिया जायेगा अब प्रसाद। सच बोलूँ तो बस काटा है आज का दिन मैंने जैसे-तैसे। मगर हाँ, जान रहा हूँ अपनी अहमियत भी इसी बहाने।


- सुकुमार

09-10-2022

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