सिवाना डायरीज - 57
सिवाना_डायरीज - 57
"काॅल कट करके जब मैं जाने वाली थी, तुमनें मुझे रोका क्यों नहीं! मैं चाहती थी कि रोको मुझे तुम।"
-ऐसा बोलकर हरबार वो महफिल लूट लेती है।
"अब जाने वाले को कौन रोक सकता है। मन था मेरा कि न जाओ तुम, मगर तुम भी तो 'बाय, अच्छे से रहना तुम' कहे जा रही थी बार-बार।"
-वो अभी तक सख्त ... होने का अभिनय किये जा रहा था।
"बुद्धू हो तुम! थोड़े भी रोमेंटिक नहीं!"
"अब जो भी हूँ, यही हूँ।"
"मूँह चढ़वा लो तुमसे तो बस। सुनो, गले लगना है मुझे।"
-उधर से कोई आवाज नहीं आई।
"चुप क्यूँ हो? सुनो ना...गले लगना है मुझे।"
-फिर कोई आवाज नहीं आई। एक अनजान सन्नाटे ने एक-डेढ़ मिनट खींच लिया।
"चलो कोई बात नहीं। इस खामोशी का मतलब समझ गई मैं। नहीं लग रही गले।"
-इस बार वो उदासी की तरफ जाते हुए बोली थी।
"जरूरी थोड़े है कि खामोशी का मतलब 'ना' ही हो। हो सकता है बंदा खामोशी से अपनी बाहें फैलाये खड़ा हो गया हो बस! बोलना जरूरी है क्या?"
-अपने फैलाये को समेट रहा था अबके वो।
"हां.....हाहाहाहा..."
-ये 'हां...' खुशी वाली हँसी से जस्ट पहले का उसका अट्टहास है जिसे सुनने के लिए वो हमेशा बेताब रहता था।
"और बिना कुछ बोले लिपट गई मैं तुमसे बस।"
"मैं भी। घुल गया हूँ इसी दरिया में।"
-और फिर, हरबार की तरह और कोई बात नहीं हो पाई।
जरूरी भी नहीं थी....
बहरहाल, महिलावास पीईईओ के दो स्कूल और छान मारे आज। लूदराड़ा और रबारियों की बस्ती, लुदराड़ा। दोनों यूपीएस स्कूल्स हैं और दोनों लगभग 150 बच्चों तक नामांकन वाले। पहाड़ियों की तलहटियों में बड़े-बड़े केम्पसेज है और लगभग स्कूल संसाधन भी पर्याप्त। दोनों में स्टाफ भी पूरा है मगर बच्चों का स्तर अभी औसत। पहली वाली में आठवीं के सौलह में से दो बच्चों को सामान्य हिंदी का वाक्य लिखना भी नहीं आता और दूसरी वाली में पाँचवी के पंद्रह में से चार ढंग से लिख पाये। मैं सिहर उठता हूँ आठवीं कक्षा की ये स्थिति देखकर एकदम से। लंच के बाद ऑफिस गया तो बालोतरा से आये दिनेश भाई की बाईक दिखाई दी ऑफिस के बाहर ही, मगर ताला लगा था वहाँ। अपनी चाबी से खोला ताला और काम स्टार्ट किया ही था कि आ गये दिनेश जी और सुरेश जी दोनों। स्केफोल्डिंग प्लान के लिए एग्जिक्युशन के लिए खूब सारी ट्रिक्स बताई दिनेश जी ने। ऑफिस से घर लौटा तब तक अंधेरा हो चुका था।
अभी तक नहीं सुधरा है डेली-शिड्यूल। रोज आने वाले कल पर टाला जा रहा है। और ऐसे होते-होते ही जिंदगी की शाम हो जानी है एक दिन, सोचते भी डर लगता है। समय के सालों की इक्कतीस देहलीजें पार करके भी आदमी अभी तक भटकाव में ही है मतलब। ये तो मनोहरा है जो सम्बलन दिये हुये हैं। जो भी, जितनी भी ठीक है - सारी उसकी वजह से है मेरी जिंदगी। बस जी लेना चाहता हूँ मैं उसका साथ, क्योंकि वो आज रहेगी तो पूरी सम्भावना है कि मेरा सौभाग्य मेरे साथ रहेगा। बाकी जय-जय।
शुभ रात्रि...
- सुकुमार
11-10-2022
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