सिवाना डायरीज - 68
सिवाना_डायरीज - 68
"तुमने छोड़ा शहर
उड़ रही है रुई
ढक रहे फूल सेमल के आकाश को।
तुमने छोड़ा शहर
धूप दुबली हुई
पीलिया हो गया है अमलतास को..."
-मतलब ना, कुमार शिव की लिखी इस कविता के लिरिक जब सुने आज कहीं, सुबह से ही गुनगुना रहा हूँ मैं। क्या कल्पना है यार। सच में बस यही कहूँगा - अद्भुत, अद्भुत, अद्भुत। मन यूँ कचोटता रहता है खुद को कि मैं कब लिख पाऊँगा कुछ इस तरह की कालजयी फीलिंग। कितना पढ़ना पड़ता होगा, कितना सोचना पड़ता होगा और कितना डूबना पड़ता होगा ना खुद के ही बनाये दरिया में। सच बोलूँ तो चौबीस घंटे कम लगने लगे हैं मुझे आजकल अपने लिए, अगर जो करने हैं वो काम ही करने हो तो भी। उम्र का पैमाना भी डराने लगा है आजकल। देखते हैं, क्या होता है...
खैर, कई दिनों बाद आये हैं घर में तो लाड मिल रहा है सभी का। दिन-भर में सिया को फैमिलीयर कर लिया है मैंने अब तो। सुबह से शाम तक में कितने ही पापड़ बेलने पड़ते हैं मुझे उसको हँसाने के लिए। कल से घर में एक और सदस्य जुड़ा है हमारी मुस्कुराहटें बढ़ाने को। गौरु और संध्या ने दीदी बना दिया है सिया को। कल ही वर्कशाॅप के दौरान ही खुशखबरी आ गई थी अपने पास अंकल जी के काॅल से। दिन-भर घर में थोड़ी-बहुत मदद करवाई मम्मीजी, खुशबू और गुड़िया की पीछे वाले कमरे की सफाई में। शाम हुई तो योगसा से भी खूब बात हुई। मौसी के यहाँ गया, बरखा के लल्ले के पास और फिर हाॅस्पीटल गोरु के लल्ले के पास। गुड़िया, खुशबू, सिया, भैया और हमनें सोफे के लिए कवर और भैया और मेरे लिए ड्रेस ली। अभी दस बजे घर लौटे हैं। अंकलजी, पियूष और पापाजी के साथ खाना खाकर अब सब गये हैं अपने-अपने कमरों में।
मनोहरा की तबियत ठीक नहीं है। फिवरिश सा फील हो रहा है उसे और मैं यहाँ चाहकर भी टेबलेट-मेडिसिन की नसीहतों के सिवा कुछ नहीं दे पा रहा। जिन्दगी की ट्रेन बेधड़क दौड़ लगा रही है और मैं जाने क्यों थमा सा महसूस कर रहा हूँ। सुबह उठकर पीली लेने जाना है। अभी सो ही जाता हूँ।
गुड नाईट...
- सुकुमार
22-10-2022
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