सिवाना डायरीज - 70
सिवाना_डायरीज - 70
अभी के दिनों में हर थोड़ी देर में दरवाजे से आवाज आ ही जाती है-
"दीवाळी को राम-राम वो भाभीजी। लाज्यो दीवाळी की मिठाई/ईनाम लाज्यो..."
मैं बहुत मन से देखने जाता हूँ कि हैं कौन ये लोग? परसों सबसे पहले आये थे एक लगभग 80-85 साल की दिखनी वाली बूढ़ी माँ और एक उनके बेटे दिव्यांग अधेड़ से युसुफ जी। उनकी इस आवाज से मेरे मुँह से सहसा ही निकल गया - "आपको किस बात की दें मिठाई?" तो वो माँ बोली - "मैं मिरासी(भाट) हां थांका। थाकी पोथ्याँ(पोथियाँ) हारी म्हें ही बाचां। थे जजमान हो म्हाका।" 'मुसलमान हमारे भाट और हम इनके जजमान!' - मेरे गले नहीं उतरी बात। मगर सच यही है। ये पहले पटवा/भाट/चारण वर्ग से रहे होंगे शायद। कालांतर में मुस्लिम रास्ता स्वीकार कर लिया होगा। मगर अपना पुश्तैनी काम बरकरार रखा और इसी नाते हम इनके आज भी जजमान है। हमारे घर के हर मांगलिक कार्यक्रम में इनका नेग(उपहार) बनता ही है। पंडितों में उपाध्याय वर्ग के हम जजमान हैं ही। कल सुबह बागरिया समुदाय के दो-तीन लड़के-लड़कियाँ आये थे। वे खजूर से बने जाड़ू सप्लाई करते हैं हमारे क्षेत्र में। इसलिए उनका भी नेग बनता है। शाम को हरिजनों के उन भाईसाहब वाले भाभीजी आये थे जो हमारे मोहल्ले की नालियों की सफाई रखते हैं। आज सुबह-सुबह ही बाहर झाड़ू लगाने वाले भाईसाहब-भाभीजी दीवाली की अपनी मिठाई लेने आये थे। माँ बताती है कि सेन समुदाय के एक-दो परिवारों के भी हम जजमान हैं। एक तो समाज के पंचायती उत्सवों में हमारी तरफ से निमंत्रण देने का काम करता है और एक पंचायती बर्तनों की सफाई का। नगर-परिषद के कचरा इकट्ठा करने वाले ऑटो-डिप्पर के ड्राइवर भी आयेंगे अभी तो मिठाई लेने। कुल मिलाकर बात ये है कि जिस संस्कृति से आते हैं हम सब, वहाँ सबके दीवाली मनाने की व्यवस्था पहले से बनी-बनाई है। ऊपर आये सारे लोगों के कारण ही हमारा अस्तित्व रह पाता है और हमारे कमाये में इनका भी वैसे ही हिस्सा है, जैसे परिवार के किसी सदस्य का। मुझे आज सुबह ये देखकर बहुत खुशी हुई जब घर में सफाई करने आने वाली दीदी के पहले तो गुड़िया और खुशबू ने धोक लगाकर 'हैप्पी दीवाली' कहा और फिर उन्होंने मम्मीजी के धोक लगाकर उन्हें विश किया। जातियों-रास्तों की इतनी लड़ाइयों के इस दौर में यह सब सुकून देता है मुझे...
बहरहाल, दीपावली है आज। भारत का सबसे बड़ा त्योहार। त्योहार जो घर लाता है सबको अपने-अपने। सेटेलाइट वाले जो फोटोज आते हैं भारत के इस दिन के, वो यह बताने को काफी है कि कितना बड़ा है ये त्योहार। अपन भी सुबह से ही छोटी-मोटी सफाई और काम में लगे रहे। मसलन दोनों गाड़ियों की धुलाई, पूजा के लिए मालाएँ लाना, गन्ने लाना, दरवाजे पर बांदनवार सजाना, शाम को सब जगह दीपक लगाना और भी ब्ला-ब्ला-ब्ला। शाम को पूजा में सिया को हमारी पारंपरिक लहंगा-कुर्ती पहनाई गुड़िया और खुशबू ने। साक्षात वृषभानुजा लग रही थी ये जानकी। पूजा में भी राधे-राधे के नाम पर ताली बजाते रही। रात को शहर में गये रोशनी देखने। शरद भैया-निधि भाभीजी, कुलदीप भैया-ज्योति भाभीजी भी आ गये थे वहीं। नगर परिषद - भीलवाड़ा और जिला प्रशासन की तरफ से आज तक की सबसे अच्छा कार्यक्रम था ये। लोकनृत्य और लोककला का मंच सजा था स्टेशन चौराहे पर।
अपनी मनोहरा से भी बात होती रही। पैरट-ग्रीन कलर का उसका सूट जँच रहा था काफी। मार्केट से वापस आते-आते साढ़े ग्यारह हो गई है रात की। बिस्तर पर पड़े-पड़े सोच रहा हूँ कि सब-कुछ ठीक नहीं है हमारे बीच। कुछ नहीं कहना चाहता अभी। नींद आ भी रही है और माथे पर सिलवटें भी हैं। कोशिश करता हूँ सो जाने की।
गुड नाईट...
- सुकुमार
24-10-2022
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