सिवाना डायरीज - 74
सिवाना_डायरीज - 74
एक अरसे तक कनेक्शन में रहते हुए भी आपके हर 'आई लव यू' पर चुप्पी साधकर या बात बदलकर आगे बढ़ जाने वाला शख्स जब एक बार लम्बी खामोशी के बाद रेस्पांस में धीरे से 'आई लव यू ठू' कहकर सिसकियाँ लेने लगे, मुझे लगता है कि तब वो सारा कर्ज उतार देता है आज तक के आपके कहे का। उसकी उन सिसकियों और आंसूओं के सम्मान की जिम्मेदारी अब आपकी हो जाती है। आखिर प्रेम को अभिव्यक्त नहीं करना, किसी की भी विवशता क्यों हो? मेरे मन को यह बात बहुत सालती है। सबसे सहज अभिव्यक्ति लिखते हैं सब प्रेम को, मगर जीते हैं सबसे जटिल तरीके से। हमें किसी से लड़ना हो या असहमति व्यक्त करनी हो तो हम समय और स्थान सार्वजनिक या निजी नहीं देखते। मगर अगर प्रेम को अभिव्यक्त करना हो या किसी को गले लगाना हो तो देख रहे होते हैं कि कहीं कोई और तो नहीं देख रहा। लड़ाई के लिए हाथ उठाने पर हमें समय-स्थान का संकोच नहीं, मगर प्राइवेसी ढूंढ़ रहे होते हैं हम गले लगाने के लिए हाथ बढ़ाने पर। मैं जो सोचता हूँ, बस इतना है कि ये पैमाने जिसने भी बनाये हैं मर्यादा के नाम पर, दोनों स्थितियों में बराबर लागू होने चाहिए।
बहरहाल, चाहकर भी सुबह मनचाहे समय पर न उठ सका। लेट हो ही गया फिर से। मोबाईल ने परेशान कर रखा है। चार्ज होने में पूरी रात ले रहा है। प्रॉब्लम चार्जर के एडेप्टर में है, उसकी लीड में है या मोबाईल की बैट्री ही निपट चुकी है! - समझ ही नहीं आ रहा। ऑफिस में भी कुछ विशेष न कर सका। कैजुअल लीव अपडेट की दीवाली वाली और अक्टूबर का फ्यूल क्लेम भी सबमिट कर दिया। जयपुर वाली मैथ्स-वर्कशाॅप की रीडिंग्स पढ़ी थोड़ी और लंच में घर आकर बाफले बनाये। बाफले अपनी वन ऑफ फेवरेट डिश है। बनने में बहुत ही कम टाईम लेती है। वैसे भी सिवाना आने के बाद मुझे दलिये की थूली, चावल की खिचड़ी और इन बाफलों ने ही बनाये रखा है। रोटी-दाल तो इन चौमोत्तर दिनों में केवल तीन बार बनी है यहाँ। लंच के बाद भी ऑफिस में मैथ्स-रीडिंग्स पर ही ध्यान दिया। शाम के खाने में मिठाई खत्म कर रहा हूँ आजकल, जो खुशबू ने बांधी थी घर से।
मन उलझा ही रहता है आजकल। सबसे उतना वापस भी चाहता है जितना खुद ने दिया है। प्रेम की ये परिभाषा ठीक तो नहीं। जिंदगी में इमोशनली और प्रेक्टिकली बैलेंस बहुत जरूरी है, और वो ही नहीं बन पा रहा मुझसे। बाकि सबसे बहुत पिछड़ने का एक मूलभूत कारण ये भी लगता है मुझे। कुछ ठीक-ठाक भी न तो लिखा जा रहा है और न ही पढ़ा जा रहा है। कविता लिखे तो जैसे कोई अरसा हो गया। कई बार अपनी लिखी कविताओं में ही उलझा पाता हूँ खुद को। जब सोचता हूँ, तो महसूस होता है कि कोई टोक न दे मुझे मेरी ही किसी कविता को सामने दिखाकर। मनोहरा अपने व्यवहार में तटस्थ है। कुछ भी होच-पोच नहीं। उनको कहीं भी दोषी ठहराया भी ठीक नहीं। सोने से पहले हमेशा की तरह कुछ-न-कुछ रिजोल्यूशन होता है मेरे पास और सुबह देर से उठना उसको अगली रात पर टाल देता है। खैर अभी तो सो जाता हूँ। सुबह टाईम से नींद खुले तो सूर्य नगरी निकलूँगा देके।
शुभ रात्रि...
- सुकुमार
28-10-2022
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