सिवाना डायरीज - 76

 सिवाना_डायरीज  - 76


'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी।

जिसको भी देखना है, बार-बार देखना।।'

-निदा फाजली के इस शेर में 'आदमी' की जगह अगर 'दिन' भी रख दिया जाये तो मैं तो गलत नहीं कहूँगा इसे। कल मेरी जिंदगी का आज तक का सबसे अच्छा दिन था और आज! आज भी अच्छा था सुबह से शाम तक तो। शाम से रात और अब आधी रात तक आते-आते खूब बदला है दिन भी। वो होता है ना जब आदमी टूट जाता है एकदम से। शारीरिक रूप से टूटने को तो आराम लेकर ठीक किया जा सकता है, मगर मासिक टूटन के आराम का कोई प्रामाणिक उपचार कहाँ खोज पाये हैं हम अभी तक! जब उसे कुछ नहीं सूझता। वह चले जाना चाहता है सबसे दूर। अभी-अभी तो उसी फेज में हूँ मैं भी। क्यों? इसका उत्तर इस टूटन के जाने के बाद ही समझ आये मुझे शायद।


बहरहाल धमाकेदार थी दिन की शुरुआत। वैसे भी खम्मू जी बाऊजी के पास होता हूँ, तब सब-कुछ श्रेष्ठ ही होता रहता है जिंदगी में। यूरोप से फोटोग्राफर्स का एक दल आया है इंडिया ट्यूर पर। उनके संयोजक क्रिट्स फ्रेंच हैं। क्रिट्स के अलावा 05 लोग और फ्रांस से, 01 स्विट्जरलैंड से, 01 बेल्जियम से और 01 जर्मनी से है। जोधपुर में पर्यावरण और इससे संबंधित मुद्दों पर फोटोग्राफी में सहायता के लिए अपने बाऊजी खम्मूजी विश्व-विख्यात है। विश्व-विख्यात यूँ ही नहीं कह रहा। इंडिया के एनवर्नमेंट फील्ड में अगर फोटोग्राफी करनी हो तो यूरोपियन कंट्रीज स्पेशली फ्रांस में तो सबसे ऊपर बाऊजी का नाम ही आयेगा। मुद्दे पर आता हूँ। बाऊजी और हम दोनों सुबह नहा-धोकर बाऊजी की स्प्लेंडर से होटल पार्क प्लाजा पहुँच गये। क्रिट्स और उनके साथी सब तैयार थे तो वहीं से हो लिये हम सब जयपुर पासिंग एक एसी ट्रेवेलर बस में, जो क्रिट्स की टीम के लिए जयपुर से ही बुक थी। सबसे जान-पहचान और नमस्ते कर लेने के बाद लगभग पौने सात बजे हम जाजीवाल धोरे पर थे। अद्भुत आध्यात्मिक जगह है वो। मैंने काफी पहले भी महसूस किया है यहाँ आकर ईश्वर और प्रकृति का ही हो जाना। हवन चल रहा था मगर सारा ध्यान साइबेरियन कुरजा के बड़े से झुंड के फोटोज क्लिक करने पर था पूरी टीम का। चुग्गा चूगने झुंड में एक साथ कुरजा पक्षी आते थे धीरे-धीरे हमारी तरफ। गाय, नीलगाय, हिरण, कौआ, चिड़िया मोर और कुरजा एक बिना पैनोरमा लिये सिम्पल फोटो में ही आ जायेंगे - ऐसा महसूस हुआ वहाँ। सब इतने पास-पास में चुग्गा चूग रहे थे। इस फोटोग्राफी के बाद मंदिर परिसर के अंदर बने हिरणों और खरगोशों वाले रेस्क्यू सेंटर्स में खुद फोटोज खींचे और खिंचवाये हमनें। वहाँ से निकल हम देवलोक खेजड़ली गये। अच्छा-खासा विकास हुआ हैं वहाँ पर। खेजड़ली से वापस हम जाजीवाल गाँव में आये जहाँ किसी शादी की सभा (प्रीतिभोज को इधर सभा ही कहते हैं) हो रही थी। 

सेम कम्यूनिटी में होने के बाद भी बहुत अंतर है हमारे वहाँ की और इधर की शादियों में। हर एक मातृशक्ति लगभग आधा-आधा किलो सोना तो पहनी ही होगी। शादी का खाना लगभग पाँच-छह हजार लोगों के लिए बनवाया गया था। मिठाई में काजू कतली, केसर बाटी, बादाम का हलवा, घेवर के साथ-साथ नमकीन में कोफ्ते, पुलाव, दाल, नमकीन और चुपड़ी हुई रोटियाँ भी थी। मतलब ना कि अपने तो वारे-न्यारे हो गये थे आज के तो। लड़के वालों के यहाँ था खाना और दुल्हे के पिता जोधपुर में ही कहीं थानेदार हैं। हमारे विदेशी मेहमान तो सारे बस फोटोग्राफी में लगे और उपस्थित सारे लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। जिसको जितनी अंग्रेजी आती है, वो उतनी आजमा रहा था उन पर और मजे की बात देखिए कि उन गौरे पावणों में से आधों को अंग्रेजी नहीं आती, केवल फ्रेंच आती है। बच्चे फोटो खिंचवा रहे थे उनसे। एक-दो अपने टेन्स-ज्ञान से बातें भी कर रहे थे।

मेरे लिए बहुत खास अपने प्रेम भैया के बड़े भाईसाहब सुखदेव जी से मिलना रहा। अनएक्सपेक्टेड था अपने लिए यह। जोधपुर में ही किसी थाने में हेड-कांस्टेबल हैं वे। सभा में मुझे दूर से ही आते हुए दिख गये थे और मैं तभी से प्रणाम की मुद्रा में खड़ा हो गया था। जितना भाव मेरा था उनके लिए, उससे दोगुनी गर्मजोशी से वो भी मिले। अपने कलिग्स और सीनियर्स से इंट्रोड्यूस भी करवाया। बहुत खुश थे वे भी यूँ मिलकर। अपने घर चलने का आग्रह बार-बार कर रहे थे और मैं अपनी व्यस्तताएं बता रहा था उन्हें। सभा से निकल हम फिर से जोधपुर आये। मेहमानों को होटल छोड़ खम्मू जी के घर आ गये थे अब हम। रास्ते में रिलायंस ट्रेंड्ज से एक स्वेट-शर्ट लिया मैंने। 

खम्मू जी के घर से मैं पैदल ही आ गया गढ़ गोविंद रिसोर्ट में अंजस महोत्सव में। मूमल भैया और मोहनपुरी जी निकल चुके थे यहाँ से। महावीर और रणजीत के साथ बैठकर पद्मश्री अनवर खान जी की मांगणियार सुनी। अब तक बाड़मेर से सागर और वहीं जोधपुर से रवींद्र भी आ गये थे वहाँ। मामे खान इतने बड़े सेलिब्रिटी है, सच मे नहीं पता था मुझे। प्रोग्राम शुरू होने से पहले ही लोग जुटने लगे थे। खम्मूजी भी आ गये थे उधर ही, तो चन्द्रभान भैया और वहीं एयरफोर्स में तैनात अंकित जी के साथ अच्छा निकला अंजस के अंतिम क्षण भी। 

खम्मूजी की गाड़ी के पीछे बैठकर उनके घर जा रहे थे कि प्लान आया दिमाग में कि अभी ही निकलते हैं सिवाना। खम्मूजी के खूब रोकने के बाद भी नहीं मानी उनकी बात और बालोतरा वाली बस में बैठ गया था। बस ने अभी सवा एक बजे उतारा है बालोतरा और यहाँ से सिवाना के लिए कोई बस नहीं मिलती रात को। एक मन हुआ कि संघ-कार्यालय जा आऊँ, तो उसके सामने भी पैदल ही गुजर लिया। लगभग डेढ़ किलोमीटर पैदल चलने के बाद एक ऑटो मिला छतरियों के मोरचे के लिए। वहाँ भी सुनसान ही है बालोतरा के नये बस स्टैंड की तरह। लूणी नदी डरा रही है। सामने वाले मंदिर के बाहर दो गरीब बुजूर्ग लेटे-बैठे हैं, जिन्हें हम अपनी भाषा में भिखारी कह देते हैं। सामने खड़े होकर मुझे डर भी लग रहा है। दस मिनट एक दुकान के बाहर बैठने के बाद फिर सड़क पर खड़ा हुआ हूँ इस उम्मीद में कि कुछ तो आयेगा, जो मुझे सिवाना ले जायेगा। तेजी से चलती हुई एक बाईक आई जिस पर बैठे भाईसाहब अपने ससुराल से अपनी बीवी से लड़के आ रहे थे। जसोल चौराहे पर लाकर उतार दिये हैं, वे हमें। बालोतरा से सिवाना की दूरी जी पैंतीस किलोमीटर थी, अब मात्र साढ़े चौतिस रह गई है। भैया जसोल के हैं और बच्चों को ढंग से नहीं रखने के इश्यू पर भाभीजी से लड़ने के बाद तीस पर्सेंट ही भैया बचे हैं। बाकि के भैया वो किसी ठेकेवाले को दे आये हैं। जसोल चौराहे पर एक महालक्ष्मी गार्डन-रेस्टोरेंट हैं। भैया बता गये हैं कि शटर बजाओ, वो सोने के लिए खास दे देंगे। सो जाना और सुबह उठकर चले जाना अपने सिवाना बट महालक्ष्मी वालों ने भी हाथ खड़े कर दिये हैं। आधा घंटा किसी और गाड़ी की उम्मीद में खड़े रहने के बाद मैं फिर महालक्ष्मी के शेड में जाकर बैठा तो वहाँ वाले भैया भगा चुके हैं।

आज की डायरी का ये अंतिम भाग लिखते हुये भी रात के पौने तीन बजे में बालोतरा के जसोल चौराहे पर खड़ा हूँ सिवाना के लिए कोई वाहन आयेगा, इस इंतजार में। आज शुभ रात्रि कैसे बोलूँ! सोने की छोड़िये, मेरे पास टिकाने को भी जगह नहीं है अभी तो। बाकि आगे देखते हैं कि क्या होता है...

जय सियाराम...



- सुकुमार 

30-10-2022

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