सिवाना डायरीज - 104
सिवाना_डायरीज - 104
"संस्कृति में ही एक आदमी, दूसरे का सहारा होता है।
इसलिए भी गाँव मुझे ज्यादा प्यारा लगता है।।"
- फुफाजी के एक्सपायर होने के बाद बैठक लगी हुई है भुआ के घर के बाहर। हरिजनों के किसी दुल्हे की बिंदोली निकल रही थी बाहर। मैं भीतर था। एकदम से गोर किया कि बेंड की आवाज बंद हो गई है। बाहर आकर देखा तो शांति हो रखी थी। बिंदोली का बेंड और उसमें उपस्थित सब लोग चुपचाप निकल रहे थे वहाँ से। गली के नुक्कड़ से बेंड फिर से बजने लगा और लोग फिर से नाचने लगे। संस्कृति का बस यही भाव मुझे शहरों से दूर और गाँवों-कस्बों के पास खींचता है। लोग कितना सम्मान करते हैं एक-दूसरे के इमोशन्स का।
बहरहाल, घर पर दूसरा दिन पूरा घूमने-फिरने के नाम रहा अपना। घर से तैयार हो पहले अवधेश के यहाँ, फिर मौसी के गया। अवधेश के पापाजी का एक्सीडेंट हो गया था एक छोटा सा। तो खैरियत पूछने गया था। मौसी के यहाँ तो जाना ही था बरखा से मिलने। वहाँ से निपट गिफ्ट चाॅईस से गिफ्ट ले विशाल की शादी में चला गया। खाना-वाना खाकर यतींद्र साहित्य वाले फतेहसिंह जी लोढ़ा के पास गया। थोड़ी देर में खूब सारी बातें कर लेने के बाद घर के लिए निकला तो शाम हो चुकी थी। घर आकर पातोला महादेव गया जहाँ पार्टी रखी थी दोस्तों ने। फिर से और दाल-बाटी खाकर घर आया तो ढोकले बने थे घर पर। मतलब ना पेट तो गैस-चेम्बर हो रखा था सुबह से ही। घर पर सामान्य बातचीत के बाद रात के दस बजे अभी बस में हूँ अपने सिवाना के लिए।
मन ठीक ही रहा। शाम को मैसेज आया था मनोहरा का तो काॅल करके खूब रिक्वेस्ट की मान जाने की। मगर कुछ असर नहीं हुआ। मतलब ना बहुत साफ कर दिया कि अब न तो लौटना है और न ही किसी भी तरह का काॅन्टेक्ट रखना है। खैर रोने लगा था लास्ट तक तो। अब करूँ भी क्या! अभी तो सो जाऊँ देके। क्या पता नींद भी नाराज हो मुझसे। शुभ रात्रि...
- सुकुमार
27-11-2022
Comments
Post a Comment