सिवाना डायरीज - 83

 सिवाना_डायरीज  - 83


"बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!

पूछेगा सारा गाँव, बंधु!


यह घाट वही जिस पर हँसकर,

वह कभी नहाती थी धँसकर,

आँखें रह जाती थीं फँसकर,

कँपते थे दोनों पाँव बंधु!"

-एयरफोर्स के जोधपुर स्टेशन में तैनात अंकित भैया ने भेजा था निराला जी की इस कविता का विडियो। सच में सुनकर मजा आ गया। मैं भी इसी दौर से गुजर रहा हूँ आजकल। समझ ही नहीं रहता कि कहीं बोझ तो नहीं। शायद बोझ ही, तभी तो अहमियत जैसा क-का भी नहीं उस तरफ से! अकेले में होता हूँ तो सिहर उठता हूँ अक्सर। समझ ही नहीं आ रहा कुछ भी। बहुत ही ख़ुशनुमा निकले दिन का अंत यूँ होगा, सोचा न था। माँ-पापा आये हुये थे सिवाना और मैं बहुत खुश रहा दिन-भर। मगर शाम होते-होते दो दिन बाद होने वाला चंद्रग्रहण आज ही लग गया मेरे लिए तो।

बहरहाल, सुबह गढ़ सिवाना हो ही आये आज हरीश भाई के नेतृत्व में। माँ-पापा भी पैदल ही चले हमारे साथ। वैसे भी अमृत जहाँ होता है, वहाँ हँसी तो होती ही है। कुछ फोटोज भी लिये ऊपर ही। वापस आकर पोहे खाये सबने और फिर तैयार हुए नाकोड़ा जी जाने के लिए। नाकोड़ा जी सच में अच्छी जगह है और वहाँ का प्रसाद तो सच में अद्भुत। बालोतरा रहने वाले विजय अंकलजी को फोन कर दिया था अमृत ने, तो वो मिलने आ गये नाकोड़ा जी ही। वहाँ से निकल आसोतरा ब्रह्मधाम होते हुए सिवाना के बाहर से ही हिंगलाज मंदिर भी जा आये हम। खूब थका दिया था आज मैंने सबको। घर आते-आते तीन बज गये थे लगभग। सवा तीन बजे भीलवाड़ा के लिए निकले सब लोग, मगर सुरेश जी की काॅल आ गई थी तो सब उनके घर गये। वहाँ चाय-नाश्ता निपटाकर सवा चार बजे निकले फिर वो सब। पाली वाले रास्ते से फिर देसूरी की नाल तरफ चले गये वे और रात को बारह बजे पहुँचे घर। उनके जाते ही मेरा तो घर ही खाली हो गया था फिर से। अब में जिसके भरोसे रह सकता था, उनकी उदासीनता मार ही गई मुझे। जैसे-तैसे निकली शाम। 

मन में बहुत गुस्सा भरा है खुद के लिए ही की स्वाभिमान जैसा कुछ तो बचाकर रखना ही चाहिए मुझे। नींद भी अपनी बाहों में नहीं ले रही और मरना भी नहीं चाहता मैं। खैर अब सो ही जाता हूँ। शुभ रात्रि...


- सुकुमार 

06-11-2022

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