सिवाना डायरीज - 95
सिवाना_डायरीज - 95
'हम लबों से कह न पाये, उनसे हाल-ए-दिल कभी।
और वो समझे नहीं, खामुशी क्या चीज है।।'
-निदा फाजली जी की लिखी और जगजीत जी की गाई एक गजल का पार्ट है ये। हर अंक आदमीं की पीड़ा। जो पूरा मुखर हो उसकी भी। जिसने सामने वाले की तो चूं तक नहीं सुनी, उसकी भी। जिसको जो चाहा मिल गया उसकी भी और जिसको न मिला उसकी भी। आपकी, मेरी, इसकी, उसकी, सबकी। सबके मन का दुख है ये। सच बोलूँ तो जिसे चाहते हैं, उससे सब-कुछ कहना हमेशा बाकी रह जाता है। कुछ-न-कुछ छूट जाता है, जो उसको कहना था। दूर होने से पहले सारी संतुष्टि मिल जाये, पर बातें खत्म हो जाने वाली संतुष्टि नहीं मिल पाती।
बहरहाल, बाड़मेर रहे आज दिन-भर हरीश भाई और अपन। सुबह सात बजे निकल लिये थे सिवाना से बालोतरा के लिए और वहाँ से सौरभ भाई की एर्टिगा जिंदाबाद। कोविड के बाद हुये लर्निंग लाॅस का लर्नर्स असेसमेंट करना है अब, बस इसी पर थी बैठक। शिव ब्लाॅक के काॅर्डिनेटर और अभी बाड़मेर से ही देख रहे महावीर भाई ने लिये सारे सेशन। सेशन शुरू होने से पहले आज अपनी स्वजातीय पूजा जी मुझे दस मिनट का कहकर हाॅल से बाहर ले गई और दो-तीन मिनट की सामान्य बातचीत हुई हमारे बीच। दिन-भर के सेशन के बाद तीन बुक्स इश्यू करवा के लाया हूँ मैं इस बार देवा भाई की लाइब्रेरी से। आचार्य चतुरसेन की 'वयं रक्षामः' पढ़ने को लेकर उत्सुक हूँ। शाम चार बजे फ्री होकर भगवती हैंडलूम से कुछ सामान ले आये और अभी आठ बजे के लगभग सिवाना पहुँचे। खाने का ठीक जुगाड़ नहीं हो पाया आज बालोतरा में, तो यहीं आकर दाल-टुक्के बनाये अपन ने।
मन बीज बनकर किसी गमले की मिट्टी में दब जाना चाहता है कि अबकी बार जब इसमें पौध फूटे, तो बस वही बस करे जो सृजन के लिए हो। मर चुका है पुराना मन लगभग। जितना बचा है, मैं उसको ही जमींदोज करने की बात कर रहा हूँ। शुभ रात्रि...
- सुकुमार
18-11-2022
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