सिवाना डायरीज - 97
सिवाना_डायरीज - 97
"अजनबी रास्तों पर भटकते रहे।
आरजुओं का इक काफिला और मैं।।"
-ताबिश मेहदी जी का शेर है ये और सबको अपनी-अपनी जिंदगी का लगता है। अब जब हम एकांत के साथ-साथ अकेले भी हैं, तो हमारा भी यही हाल है। रोज हसरतें पनप रही है, और रोज सूरज अस्त भी हो रहा है। कभी खुद को समेटने की कोशिश, कभी किसी के पास हो जाने की और कभी कहीं दिल लगाने की। सारी चल रही है कोशिशें। कितना सही - कितना गलत है ये सब, कुछ समझ नहीं आ रहा। बस वो खालीपन भरना मुश्किल हो रहा है।
बहरहाल, रविवार तय था ऑफिस में अपने होने का। हरीश भाई जयपुर गये हैं और सुरेश जी के घर पर काम हैं कुछ। मतलब ना कि फुल-फ्लेश अपन ही रहे आज ट्रेनिंग में कर्ता-धर्ता। घर पर साफ-सफाई पूरी वाली की आज। ऑफिस पहुँचते ही गुलबर्गा से मिलन दीदी की काॅल आ गई। खूब प्रोत्साहित करते हैं वे मुझे आगे बढ़ने को। ढेरों बातें हुई समाज और पर्सनल वाली। राजसमंद वाले डिम्पल दीदी, बिजौलिया वाले कुसुम दीदी, टोंक वाली राधिका जी और केकड़ी वाले नीलम मे'म के साथ बीता फ्री टाईम ट्रेनिंग में ही। सच बोलूँ तो मैअअं गया भी उन के लिए ही था वहाँ। समावेशी शिक्षा के आयाम और बाल-अधिकारों पर खूब बातें हुई आज। शाम की चाय के बाद फ्री होकर अपन भी लौट आये घर पर। बाफले बनाकर खा लिये हैं और बाहर दो मिर्ची-बड़े भी निपटा आया हूँ। भैया पीपीएल में अंपायरिंग और कमेंट्री कर रहा था आज तो।
मन खुश रहा क्योंकि इतने सारे लोग आस-पास थे। कुछ कदम बढ़ाने की कोशिश करता हूँ पर डर सा लगता है अब कहीं भी। देखते हैं, क्या होता है। अभी तो शुभ रात्रि...
- सुकुमार
20-11-2022
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