सिवाना डायरीज - 108

 सिवाना_डायरीज  - 108


"जो वो मिरे न रहे, मैं भी कब किसी का रहा।

बिछड़ के उनसे सलीका न जिंदगी का रहा।।"

- कैफी आजमी जी का ये शेर मेरे अभी के दिनों पर है। बेहद बेहूदा सलीके से जी रहा हूँ आजकल। यहाँ ये लिखने के अलावा कुछ भी नियमित और निश्चित नहीं। कहीं अटक रहा हूँ, जहाँ नहीं अटकना था। मंजिल दिन-ब-दिन दूर होती जा रही लगती है। खुद को धोखा देने में भी कहाँ पीछे हूँ! जिंदगी को खेल समझ लिया है मैंने। बिल्कुल ऐसे कि अगर ठीक से खत्म न हुआ तो, फिर से खेल लेंगे। मगर साँसें हमारे हाथ में होती तब ना। जाने क्या होगा आगे। सोच-सोचकर ही डर लगता है।


बहरहाल, सप्ताह का चौथा दिन। स्कूल शुरू होने से बारह बजे तक निम्बेश्वर स्कूल में रहा आज। फिर ढेर सारी बातचीत हुई। सुरेश जी और हरीश भाई को झूठ बोल रखा था कि तीन-चार बजे निकलूँगा घर के लिए। मगर एक बजे ही निकलने का प्लान था और निकला भी। धोखा दिया आज पहली दफा कलिग्स को। काॅल पर काॅल आये उनके। पहले तो अटेंड नहीं किये, फिर कुछ बहाना बनाकर बता दिया कि रवाना हो गया था दो बजे ही। पहले सिवाना से जालौर, फिर जालौर से देसूरी, फिर देसूरी से राजसमंद और फाइनली उधर से भीलवाड़ा घर तक आते-आते दस बज गई। राजसमंद से तो एक एम्बुलेंस में बैठकर आया हूँ। अलग ही फील आ रहा था। पूजा की शादी का महिला-संगीत चल रहा होगा। सुबहवहीं जाना है। सिया जग गई थी अभी। मुझे ही एकटक देख रही थी।


मन कतई सही नहीं है। सफर में भी सफ्फर ही हुआ आज दिन-भर। मन को समझा नहीं पा रहा हूँ कि दुख केवल किसी का जाना नहीं होता। मन रो लेने का है। अभी सो ही जाता हूँ। शुभ रात्रि...


- सुकुमार 

01-12-2022

Comments