सिवाना डायरीज - 114
सिवाना_डायरीज - 114
'इस ग्रह को पृथ्वी कहना कितना अनुचित है, जब यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से महासागर है।'
- मशहूर लेखक आर्थर सी. क्लार्क का यह कथन खूब मजबूर कर रहा है सोचने को। आज जब आउटलुक मैग्जीन पढ़ रहा था अपनी एलआरसी पर ही, उसके एक आर्टिकल में पाया मैंने इस पंक्ति को। समुद्री संभावनाओं पर आधारित था पूरा आर्टिकल। भौगोलिक हिसाब से देखें तो सच में बहुत बड़ा रोल है महासागरों का पृथ्वी के होने में, और नदियाँ तो बोनस है ही। पता है एक दफा तो यह लाईन मुझे बिल्कुल बुद्ध की उस लाईन सी लगी कि संसार दुखों का सागर है।
बहरहाल, दिन निकल रहे हैं बस। अपनी सुबह उतनी ठीक नहीं हो रही जितनी ठीक करने के सपने लेकर रात को सोया जा रहा है। चुकंदर नाश्ते में लेना शुरू किया है इस सप्ताह, मगर पहले ही दिन भारी रहा पेट। निपटकर मायलावास में अपने विनोद जी वाली स्कूल गया था आज। 'सर-सर-सर-सर उड़ी पतंग' और 'रेल चली भाई रेल चली' वाली कविताओं के माध्यम से वर्ण-शब्द पहचानने पर कोशिश की बच्चों के साथ। विनोद जी के छोटे भाई का बर्थ-डे था तो कचौरी खाई आज पूरे स्टाफ के साथ। लंच के बाद पिपलिया नाथ जी की कुटिया स्कूल में रुका। बच्चों से खुब बात हुई यहाँ भी। शाम ढले ऑफिस आकर हरीश भाई के साथ दूध-जलेबी खाने चला गया मार्केट में ही और अभी बिस्तरों में हूँ। बस यही है जिंदगी...
मन ठीक कर रहा हूँ। हो भी रहा है। अब बस जिद कर लेनी है सपने को। उसी में लगा हूँ। बाकि जय-जय। शुभ रात्रि...
- सुकुमार
07-12-2022
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