सिवाना डायरीज - 138
सिवाना_डायरीज - 138
प्रेम मुक्त कर देने का नाम है। बिल्कुल वैसे ही जैसे हमें अच्छा लगे या बुरा, समय हमें मुक्त कर देता है। कैलेंडर को कोई मतलब नहीं कि आपने पन्ना पलटा या नहीं, उसे अपनी तारीखों में इजाफा करते रहना है। कैलेंडर को भी हम थामें रखते हैं, वो तो मुक्त करता ही है शनै-शनै हमें। समय कहाँ रुकता है किसी के लिए। पीड़ा होती तो है मुक्त करने में। मगर यह जरूरी भी तो है।
मैंने जिंदगी का खेल बना रखा है उम्र के इस पड़ाव तक तो। कुछ भी तो नहीं जो ढंग से साधा हो। ना कॅरियर, ना प्रेम, ना रिश्ते ना दोस्ती और ना अपना होना ही। मन से मतलबी न होते हुए भी मतलबी ही साबित होता रहा मैं, कम से कम अपनी नजरों में तो। सच बोलूँ तो ऐसा तो नहीं ही सोचा था कभी भी। एक पहाड़ है माथे पर जिसका नाम लूँगा तो लोगों की नजरों के पहाड़ से गिर जाऊँगा। दीमक की तरह खाये जा रहा है कुछ मुझे।
आज का दिन भी इस साल की तरह ऐसे ही आलस्य में ही निकल गया। हर बार की तरह इस बार की रातों को भी खूब दिलासे दिये मैंने अगली सुबहों को ठीक करने के। सुबह से 'कल से करूंगा' में ही निकल गया दिन। वार्षिक प्रतिवेदन बहुत ही बेतरतीबी और बेमन से किया है पूर्ण। मेरी ये शैली तो नहीं रही कभी-भी काम करने की।
मगर बस। बहुत हो गया अब। अब एकांत खिलेगा मेरा। ब्रह्मचर्य सधेगा मेरा। मन और मस्तिष्क को इतना व्यस्त और अच्छा रखना है कि गुंजाइश न बचे अतीत के लिए थोड़ी सी भी। बाकि जो फूल खिलने वाले हैं, वे खिल के रहेंगे। जिंदगी जिंदाबाद...
- सुकुमार
31-12-2022
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