सिवाना डायरीज - 141
सिवाना_डायरीज - 141
संक्रांति में कोई दसेक दिन बचे हैं। आसमान बता रहा है। सुबह का धुंधलापन छंट रहा है धीरे-धीरे। जिंदगी से भी यही उम्मीदें हैं। मुझे लगता है सुबह को इसलिए पसंद नहीं किया जाना चाहिए कि अंधेरा लील लेती है ये, इसे इसलिए पसंद किया जाना चाहिए कि रास्ते साफ करती है ये मुझ जैसे भटके हुओं का। ये इल्म मुझे भी है कि फितरत शबें और सुबहें देखकर नहीं बनती, मगर जो महसूस किया वो यह भी है कि मैं इंसानियत के पैमाने पर अक्सर सुबह से शाम तक में ढलता ही हूँ। बात जिंदगी को ठीक करने की हो या एकांत साधने की, मैंने रात होते-होते हमेशा खुद को एक औसत या दोयम दर्जे का हाड़-मांस का पुतला पाया है। इस संक्रांति से खूब उम्मीदें हैं। उम्मीदें इसलिए भी कि ये दिन मौसम में बदलाव की शुरुआत है। अहसासों की एक लम्बी ठंड झेल लेने के बाद जिंदगी के मौसम में ऐसी संक्रांति की एक उम्मीद मुझे भी है। संक्रांति के साथ-साथ एक जैसे शब्द के कारण सुकरात भी याद आ जाते है मुझे। मेरी जिंदगी में संक्रांति लाने के लिए उनका एक क्वोट भी है कि - 'इस दुनिया में सम्मान से जीने का सबसे महान तरीका है कि हम वो बनें जो हम होने का दिखावा करते हैं।'
बहरहाल, दिन की शुरुआत जब आरजे के घर हुई है तो स्वाभाविक है खुशनुमा होना। बिजली नहीं आ रही थी सुबह तो भाभीजी को मोबाईल-टार्च की रोशनी में नोट्स पढ़ते देखा। ईश्वर करे फरवरी का आखिरी सप्ताह उनके जीवन का सबसे खूबसूरत सप्ताह हो। समय-पाबंदी के इम्तिहान में फिर से हार गया आज मैं। डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट एक घंटा देरी से दस बजे पहुँचा। अनुअल प्लान्स और रिव्यूज पर खूब चर्चा हुई आज और हवा में सफर करते हुए बेंगलूर जाने का टिकट भी। एक्साइटेड हूँ मन ही मन में जाने के लिए। भैया की काॅल किसी के लिए सहमति को लेकर थी। अंदेशे ने ही परेशान किया मुझे। अपनी 'हाँ' का आकलन ईश्वर करेगा, ऐसी उम्मीद है मुझे। शाम को होटल में साथ में कृष्णा भैया है। हजारों अनुभव हैं उनके। लगातार सुनाये भी जा रहे हैं। मन जाने कहाँ अटका हुआ है। क्यूँ अटका हुआ है। कुछ भी नहीं पता। रात के साढ़े बारह बजे भैया चालू है और मैं कहीं और ही उड़ रहा हूँ। ईश्वर करे अब नींद आ जाये। बाकि नींद के हवाले ही करता हूँ सब। अभी तो शब्बा खैर...
- सुकुमार
03-01-2023
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