सिवाना डायरीज - 144

 सिवाना_डायरीज  - 144


बगावत करने का मन है इस जिंदगी से। बगावत जो इसे आईना दिखा सके अपना। बगावत जो धक्का दे इसे फिर से इंसानियत के ट्रेक पर। बगावत जो आँख नहीं मीचे इसके सब-कुछ पर ही। बगावत जो निखारे। झंझावातों का एक समंदर घेरे हैं सुकून के छोटे से टापू को। स्वतः-स्फूर्त पीड़ा की बड़ी-बड़ी लहरें अक्सर डुबा देती है सारे किनारे और चौपट कर देती है सारी मन-व्यवस्था। नसें उलझती जा रही है जाने क्यों! मौसम से ज्यादा हालातों की ठंड ठिठुरा रही है  सबको लग रहा है कि ठीक से कट रही है मेरी। बस मुझे ही नहीं लग रहा। आँखे मीच ध्यान करने में भी मन नहीं लग रहा। कुछ ज्यादा ही उलझा लिया है शायद खुद को! कोशिशों में हूँ कि जल्दी निकलूँ बाहर इससे और सामान्य हो जाऊँ।


यकीन करूँ या न करूँ, ठंड यहाँ भी अच्छी वाली ही है। मुझे जमाये रखती है बिस्तरों में सूरज के माथे पर आने तक। हरसंभव कोशिश चल रही है मनोहरा को मनाने की। सफलता के नाम पर दिलासे मिल रहे हैं। ऑफिस में लाइब्रेरी वाले काम में ही अटका हूँ। सुरेश भाई आ गये हैं टोंक से। उनकी उपस्थिति संबल देती है मुझे। विनोद मिलने आया था आज। रमेश मार्केटिंग वाले दुकान सोच रखी थी पहले ही, वहीं गये। पाँच किलो आटा खत्म हो गया है लगभग पाँचवे महीने तक आते-आते। कल निकलना है जोधपुर के लिए। कपड़े इस्त्री कर लिये हैं। मन की सिलवटें दूर हो जायें बस। बाकि सब ठीक ही चल रहा है...


- सुकुमार 

06-01-2023

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