सिवाना डायरीज - 153

 सिवाना_डायरीज  - 153


मन की पतंग फंस गई है अपनी आलस्य और कामनाओं के बीच। ठीक कुछ भी नहीं चल रहा। ठीक करने की कोशिश भी नहीं हो रही। दो ब्लेंकेट्स और एक शाॅलापुरी चद्दर क्रास करके भी ठंड भीतर घुस रही है। मैं चाहकर भी अपने भीतर की ऊष्मा-ऊर्जा का उपयोग नहीं कर पा रहा। आर्थिक संतुलन चरामराया हुआ है। और इसके चरमरा जाने की खबर मेरे पीछे से होने भी लगी है। खत्म कुछ ठीक से करने की कोशिश की फिर से, सफलता-असफलता बाद में देखी जायेगी। नया घर देखा एक। अच्छा है, बस किराया ज्यादा मांग रहे हैं। रघुजी अपने जैसे लगते हैं यहाँ। 


आँखें तो कब से ही खुल गई थी मगर बिस्तर लगभग शाम के चार बजे छोड़े आज। रविवार के दिन का इतना मिस-यूज इससे पहले मैंने कभी नहीं किया। एकांत साधने तो दूर, कोशिश भी कहाँ हो रही हैं आजकल। ढोकले बनाने की कोशिश की थी आज। काफी हद तक सफल भी रहा। रवि भाई की काॅल आई थी। इन्हें सब पता चल जाता है कि कहाँ क्या हुआ था और क्या नहीं। 


ढोकले खाकर बिस्तरों में हूँ और ये ठंड बाहर भी नहीं निकलने दे रही। देखते हैं जिंदगी किधर ले जाती है...


- सुकुमार 

15-01-2023

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