आसमां में...
नीली आँखों वाली वो लड़की। अरे साॅरी-साॅरी! नीली आँखें तो जर्मन लड़कियों की होती है। वो तो इंडियन है। हाँ, दोनों आईब्रोज के ऊपर एक-एक नीली लाईन और उसके ऊपर लाईट पिंक वाली लाईन खींचे वो सुंदरता के अपने ही पैमाने खींच रही है। हाथ में ब्ल्यू वाला पाॅलिथिन का बड़ा कैरी-बेग लिये उससे 'सर, क्लीयरेंस' और 'मे'म, क्लीयरेंस' सुनते दया आ रही है उस पर। एक बात यह भी तो है कि हम सब इंसान सारे तरह के काम के लिए बने हैं, यह भी तो सिखा रही है वो।
थोड़ी देर पहले एक वाटर-ग्लास, काॅफी-कप और मसाला ट्विस्ट कुप्पा नूडल्स का एक डिब्बा भी ये ही दे गई थी निपटाने को। तब 'मिस्टर विश्नोई, व्हाट वुड यू लाईक टू टेक इन प्री-बुक्ड मील' सुनते ही बाँछें खिल गई थी मेरी। एक मोमेंट के लिए सोचा भी कि इसे कैसे पता कि मैं मिस्टर विश्नोई हूँ! फिर धीरे से संभाला खुद को तो समझ आया कि लिस्ट है उसके पास सारे पैसेंजर्स की। हड़बड़ाहट में 'आफ्टर सम टाईम। आई वियर थिंक अबाउट इट' बोलकर टालना चाहा। मगर फिर एकदम से सोचा कि क्या पता फिर आयेगी या नहीं ये, तो जल्दी से काॅफी ऑर्डर कर दी। अब उसका सवाल बदल चुका था - 'हाॅट और काॅल्ड?'
'अरे मेरी माँ इतनी सर्दी है नीचे धरती पर। तुझे सूझ भी कैसे रही है काॅल्ड-काॅफी। माना कि बहुत पसंद है मुझे, बट उसके लिए ठीक वाला साथ भी तो चाहिए।' - ये सब केवल सोचा ही था। मुँह से तो बस ये निकला - 'हाॅट।' उसके सवाल खत्म कहाँ हो रहे थे! अब पूछ लिया उसने कि -'व्हाट वुड यू लाईक टू टेक इन स्नेक्स? पोहा, नूडल्स, काॅर्न्स और एनीथिंग एल्स?' अपने को उसकी दुकान में मैगी नूडल्स का बड़ा डिब्बा पहले ही दिख गया था, तो जल्दी से मैगी ही बोल गया। वो मैगी के डिब्बे में बाॅयल्ड वाटर डाल रही थी तब तक अपन 'वन ग्लास वाटर प्लीज' कहकर थोड़ी और अंग्रेजी जाड़ चुके थे। मैगी वाले डिब्बे पर एक स्पून और एक टिश्यू पेपर रखकर 'ऑपन इट ऑफ्टर फाॅर मिनिट्स' कहकर वो आगे बढ़ गई है।
सीट के सामने वाली ट्रे को खोलकर सारा सामान जमाकर फोटो खींच लिया है और पहले पानी, फिर काॅफी और अब नूडल्स निपटाये जा रहे हैं। बीच वाली गैलेरी के उस पार बगल वाली सीट पर अपने बायतू वाले वेणीजी भी मैगी कुप्पा नूडल्स और सूप को सुड़-सुड़कर के खा-पी रहे हैं। पूरा फिनिश नहीं हुआ उससे पहले ही वो नीली आँखों वाली, साॅरी-साॅरी यार नीली आईब्रोज वाली एयर-हाॅस्टेस 'क्लीयरेंस-क्लीयरेंस' करते वापस आ गई है...
टायलेट का फ्लश बटन दबाते ही इतने जोर से आवाज आई मुझे वाॅशरूम में कि एक बार तो डर गया। यूँ लगा जैसे कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं हो गया। सेम ऐसा वाश-बेसिन के टेप के साथ भी हुआ और ये टिश्यूज हर जगह काम आते हैं यार।
स्वाध्याय यानि बुक-रीडिंग के मामले में सब अपने जैसे ही लग रहे हैं मुझे। करीबन ढाई घंटे के सफर में कोई ऐसा नहीं दिखा जो लगातार आधे घंटे से ज्यादा पढ़ पाया हो। दो-तीन फाॅरेन-लुक टाईप के देसियों ने प्लेन में बैठते ही अंग्रेजी के नाॅवेल खोल लिये थे। मेरे पास वाली विंडो सीट वाला भी 'माॅर्निंग मिरेकल्स' चाटते उबासी लेकर सो चुका है। पीछे वाली सीट पर बैठी एक आंटी 'सेपियन्स' को बैठी है तब से ही गोद में लेकर बैठी है। एक भाई अपना गेराल्ड नाम के किसी ऑथर की बुक को हाथ में उठाये हैं। इन्हें देखकर मुझे भी लगा कि अपने गुरुदेव अक्षयराज जी झाला का 'तारीखें' उपन्यास निकाल लूँ बेग से। मगर फिर रुक गया। अपनी-उनकी क्या ही तुलना।
लगभग डेढ़ घंटे से हवा में ही हैं हम। हाँ बचपन में पढ़ते थे उसी समताप मंडल में। मौसमी परिवर्तनों वाले क्षोभ मंडल से ऊपर। बादलों की रिहायशी काॅलोनियों के अलावा कुछ नहीं दिख रहा। नीचे जोधपुर, उदयपुर, राजसमंद, अपना भीलवाड़ा, उज्जैन, इंदौर, जबलपुर और भी एमपी के सारे जिले पीछे छूट गये होंगे शायद। सामान्य भाषा में जिसे हम सब दक्षिण भारत कहते हैं, उसकी जमीन की किसी सब-अरबन काॅलोनी के मिडिल-क्लास घर की छत पर बैठे बच्चे की आँखों के काॅर्निया पर छप रहा होगा हमारा ये इंडिगो का प्लेन। वो भी सोच रहा होगा कि एक दिन मैं भी बैठूंगा प्लेन में, बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में मैं सोचता था...
- सुकुमार
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