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Showing posts from August, 2022

सिवाना डायरीज - 15

 सिवाना_डायरीज  - 15 'गौतम! फिर बोलो तो, क्या कहा आपने?' लम्बी और हल्की नीली धारियों वाला कुर्ता पहने एक सज्जन से दिखने वाले महानुभाव एक छोटे बच्चे से पूछ रहे थे। 'कुच नहीं तर, वो धलिमा के तिफिन ता तलर पिंत है। इचलिये मैं उते बोल लहा था ति पिंत तलर लड़तियों ता होता है।' तुतलाता सा जवाब था उस बच्चे का। 'अच्छा, किसने बताया ये आपको गौतम?' उसके पास एक घुटने पर बैठते हुये उन सज्जन ने पूछा। 'मेली दीदी बोल लही थी तर। उनतो बी बोत पतंद है पिंत तलर।' बहुत मासूमियत भरा जवाब था गौतम का। 'बेटा, पर मेरी पानी की बाॅटल में भी पिंक ढक्कन है, राहुल सर के बैग का भी और अखिल सर तो आज शर्ट भी पिंक कलर की पहने हैं। फिर हम सब भी लड़कियाँ हो गई ना?' ये तीसरा और सोचने को मजबूर कर देने वाला प्रश्न था उन सज्जन का। 'नहीं, तर। मधर पिंत तलर लड़तियों ता ही तो होता है!' जैसा जाना था अब तक, गौतम उसी पर अड़ा रहा। 'नही गौतम, कोई सा भी रंग किसी एक का नहीं होता। प्रकृति ने जीवन को खूबसूरत बनाये रखने के लिए ही हमें सारे रंग दिये हैं' उन सज्जन ने बहुत सज्जनता से ये बात ...

सिवाना डायरीज - 14

 सिवाना_डायरीज  - 14 सिवाना-बालोतरा रोड़ पर गुमटी जैसी एक छोटी सी मंदरी के बाहर अपने पैरों के छालों पर कपड़ों की कतरनें लपेटती उस देहाती सी दिखने वाली महिला के चेहरे पर थकान है। छालों पर कपड़े बांध वह फिर से चलने लगी डामर की सड़क पर। अपने फेटे को घुटने तक उठा हाथ में पकड़कर वह दौड़ना चाहती है क्योंकि उसके साथ वाले लोग आगे बढ़ चुके हैं। गुजरती बसों और मोदर-साइकिलों में से कहीं से भी जैसे ही 'जय बाबा री' आवाज आ जाती है तो वह दुगुनी आवाज में चिल्लाती है - 'जय बाबा री सा।' लगभग आधा-एक किलोमीटर दूरी पर एक पेड़ के नीचे पिकअप खड़ी है। उसकी ट्रोली में बेतरतीब से भरे पड़े हैं कितने ही बेग्स। पीछे ही पीछे दो बड़े स्पीकर रखे हैं जिन पर भजन चल रहा है - 'हे रुणीचे रा धणिया,  अजमाल जी रा कंवरा, माता मेणादें रा लाल, राणी नेतल रा भरतार, म्हारो हेलो, सुणो नी रामा पीर जी, ओ जी...' भजन की धुन ऐसी है कि राह चलता भी थिरक ले इस साज पर। मगर हिम्मत नहीं हो रही शायद उन सबकी जिनके लिए ये बजाया जा रहा है। नीम के चबूतरे के चारो तरफ लेटे-बैठे वो लोग अपने-अपने ढंग से सुस्ता रहे हैं। एक स्टाॅ...

सिवाना डायरीज - 13

 सिवाना_डायरीज  - 13 'कई परिवारों का इतिहास गवाह है कि औलाद की मार ने कई बड़े फौलादों को भी जमीन की धूल चटवा दी।' -पंडित विजयशंकर मेहता जी 'हमें सबसे ज्यादा काम करने की जिन पर जरूरत है, वो है हमारे बच्चे। ये कोठी, बंगले, गाड़ियाँ और जमींदारा दुनिया को दिखाने के लिए ठीक है। बाकि मन जो देखना चाहता है हमारा वो है हमारी सभ्य संतानें।' -आईपीएस प्रेमसुख डेलू जी पहले भी लिखा है मैंने एक कि, 'अगर आपके पिता आपसे खुश नहीं हैं, तो आप कैसे सोच सकते हैं कि वो परमपिता आपसे खुश होंगे।' -आईएएस जितेंद्र कुमार सोनी जी -इतने सच्चे और अच्छे क्वोट्स टाईप करने से पहले बार-बार सोच रहा हूँ कि क्या लायक हूँ मैं इतनी ढंग की बातें कर लेने के! आपके जीवन की चिंता करके पापा को अगर रात-भर अगर नींद न आये, तो समझ लेना चाहिए कि कुछ तो है जो आपको ठीक करने की जरूरत है। आप रो लीजिए उनके सामने, उनका सारा गुस्सा काफूर हो जायेगा। या तो वे साथ रो लेंगे या गले लगाकर खुद के रोने को दबाये आपको चुप करेंगे। पिता ठेठ देहाती हो या साॅ-काल्ड प्रगतिशील किस्म के। दिल सबका पापा वाला ही होता है। अट्ठाइस-तीस की उम्...

सिवाना डायरीज - 12

 सिवाना_डायरीज  - 12 1750 के दशक के आस-पास पहली बार ब्रिटिश जब भारत आये थे, विश्व के कुल उत्पादन में भारत का योगदान 24.4 प्रतिशत था और खुद ब्रिटेन का महज 1.9 प्रतिशत। 200 सालों में हमारे हाथों से हथकरघा और हल छीन अपनी मशीनों के ऑपरेटर बना उन्होंने हमारी ये हालत कर दी कि देश के आजाद होते वक्त विश्व के उत्पादन में ब्रिटेन का योगदान 17.4  प्रतिशत हो गया और भारत का रह गया 1.7 प्रतिशत।  अगस्त-सितंबर माह की इंडिया टूडे का एक आर्टिकल जब पढ़ रहा था, उसके उपर्युक्त आँकड़ों से मेरा खून अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ कतई नहीं खोला। उलट मुझे तरस आया कि हम कितना जल्दी तैयार हो गए ना मालिक से नौकर बनने के लिए। हम कितनी जल्दी तैयार हो गए काम की जिम्मेदारी नहीं लेने के लिए। हम तैयार हो गए मेवाड़ी कहावत 'बाण्या की नौकरी की होड नी वेवे' वाली हमें पीछे धकेल देने वाली व्यवस्था को स्वीकारने के लिए। हमनें संतुष्ट कर लिया खुद को सुबह-शाम की रोटी की व्यवस्था करके। हमनें सो काल्ड सभ्य और ऊँचा दिखने के लिए अपने खेतों में उगे, अपने हाथों से बुने कपड़ों पर स्वीकार कर लिया 'मेड इन इंग्लेंड' का टेग। ...

सिवाना डायरीज - 11

 सिवाना_डायरीज  - 11 दृश्य - १ भगवान ने कहा - 'हे आनंद, यह स्थान बौद्ध भिक्षुओं का प्रथम विहार होगा। बौद्ध भिक्षु यहाँ रहकर सन्मार्ग का अन्वेषण करेंगे। यही तथागत की इच्छा है।' दृश्य -२ एक वृक्ष की जड़ में अम्बपालिका स्थिर बैठी थी। भगवान को स्थित देख वह उठी और धीर भाव से प्रभु के सम्मुख आकर खड़ी हुई। भगवान ने उसकी ओर देखा। अम्बपालिका ने विनयावनत होकर कहा- 'बुद्धं शरणं गच्छामि।  धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।।' तथागत स्थिर हुए। उन्होंने तत्काल पवित्र जल उसके मस्तक पर सिंचन किया और पवित्र वाक्यों का उपदेश देकर कहा - 'भिक्षुओं! महासाध्वी अम्बपालिका का स्वागत करो।' फिर जयनाद से दिशाएँ गूंज उठी और अम्बपालिका तथागत तथा अन्य भिक्षुगण को प्रणाम कर वहाँ से चल दी और फिर वैशाली के पुरुष उसे न देख सके... पहले दृश्य का वह स्थान जिसे तथागत भविष्य के लिए सन्मार्ग के अन्वेषण का केंद्र बता रहे हैं, वह एक वेश्यालय है और दूसरे दृश्य की अम्बपालिका नगर-वधू। आचार्य चतुरसेन की प्रिय कहानियों में से एक 'अम्बपालिका' को आज जब पढ़ा, तो महसूस हुआ कि जिंदगी हमारी सोच के परे ख...

सिवाना डायरीज - 10

 सिवाना_डायरीज  - 10 'इन्नीक निन्ने इश्तामानु'  ' हाँ, मलयालम में ऐसे कहा जाता है प्रेम की अभिव्यक्ति को।  नमस्ते रोहित जी। टीनएज रोमेंस या यूँ कहूँ लड़कपन की शैतानियाँ मैंने भी की है। खूब की है। मगर प्यार, इश्क, मोहब्बत, प्रेम या प्रणयम। हाँ 'प्रणयम' कहते हैं मलयालम में प्रेम को। वो है ना थोड़ा मैच्योर हो जाने के बाद ही समझ आता है। क्रिकेटर संजू सैमसन का बैचमेट रहा है मनु। ढेरों कहानियाँ हैं उसके पास। हैदराबाद यूनिवर्सिटी मेरे जीवन को यूँ बदल देगी। कभी सोचा न था। क्यों हुआ, क्या हुआ, कैसे बढ़ा? - ये सारे प्रश्न और इनके उत्तर जल्दी ही मिलेंगे आपको। थोड़ा पेशेंस रखिये...' सुबह-सुबह ही इतना कहकर पहला एपिसोड खत्म किया उसने। फिर जैसे-जैसे दिन ढलता गया, उसकी ऑडियो रिकाॅर्डिंग्स आती गई और शाम होते-होते एक लम्बी सी कहानी मिल गई मुझे भी लिखने के लिए।  तमिल, उड़िया, मलयालम, अंग्रेजी और हिंदी भाषा की मिक्स-वेज सब्जी जैसी है वो। हाँ मिक्स-वेज, मिक्स-वेज इसलिए कि मूलतः तमिलनाडू की होकर भी प्योर वेजिटेरियन है। बहुत ही प्यारी और चुलबुल एक दोस्त जिसने प्रेम की अपनी परिभाषाओं क...

सिवाना डायरीज - 9

 सिवाना_डायरीज - 9 'History is the one weak point in Indian Literature. it is in fact non existent. The total lack of historical sense is so characteristics that the whole course of Sanskrit literature is darkened by the shadow of this defect, suffering as it does from an entire absence of Chronology.' - कोई पाश्चात्य प्राच्यविद्या विशारद हमारे देश के बारे में यूँ कह देता है तो, एक बार तो अनडाइजेस्टेबल हो जाता है हमारे लिए। हम सोचते हैं कि क्या ठेठ पन्द्रहवी शताब्दी में कालीकट में कदम रखने वाले युरोपियन बतायेंगे हमें हमारा इतिहास! उनके यहाँ मिट्टी में प्राण-तत्व था या नहीं था, असंख्य सभ्यताएं पनप गई थी तब भारत में। मगर मेकडाॅलन ने कुछ गलत कहा है क्या इस पंक्ति में? हाँ, केवल कालक्रम को ही सारी ऐतिहासिक समझ मान लेने में उनका भी दोष है, मगर हमें ये तो स्वीकारना ही चाहिए ना कि कालक्रम वाला दोष जो न होता अगर हमारे इतिहास लेखन में, तो साहस हो पाता किसी बाहरी का ऐसी बात कह देने का! तभी तो ग्रंथ 'वीर-विनोद' के रचयिता हमारे राजपुताने के बेटे महोपाध्याय कविराज श्यामलदास ने भी अप...

सिवाना डायरीज - 8

 सिवाना_डायरीज - 8 'शिक्षा विभाग! नहीं, नहीं जी। चुनाव आयोग, स्वास्थ्य विभाग, परिवहन विभाग, महिला एवं बाल विकास विभाग और सूचना एवं जनसंपर्क विभाग का काॅकटेल हैं जी हम। चार मेल-टीचर हैं चौदह के स्टाफ में। तीन बीएलओ है और एक एचएम सर हमारे सुपर-वाइजर। अभी वोटर-आईडी को आधार से लिंक कर रहे हैं अपने-अपने बूथ के वोटर्स की। परसों ही एसडीएम मेडम का मैसेज आया है कि प्राथमिक विद्यालयों का स्तर तो बाद में भी सुधारा जा सकता है, पहले इस कार्य को प्राथमिकता दो। पोषाहार और मिड-डे मील का चल ही रहा है। हालाँकि बच्चों के खाना बनाने के लिए पास की ही तीन महिलाएँ हैं, मगर मानिटरिंग के लिए एचएम सर ने वीकली ड्यूटी लगा रखी है। और खाद्य सामग्री भी तो अपने को ही लानी होती है बाईक के पीछे बच्चों को पकड़ाकर। कोविड टाईम में तो नाके पर आने-जाने वालों का रिकाॅर्ड रखने के लिए रजिस्टर लेकर बिठाया गया था हमें। वैसे तो डब्ल्यूएचओ ने पोलियो मुक्त डिक्लेयर कर दिया है भारत को, फिर भी सुरक्षा के लिए टीके भी तो लगवाने होंगे ना बच्चों को। उसमें भी ड्यूटी आने वाली है। मतलब ना कि एक शिक्षक सारे काम करेगा सरकार के। केवल बच्चो...

सिवाना डायरीज - 7

 सिवाना_डायरीज - 7 लड़के-सी दिखने वाली एक लड़की टोपी लगा उदास-सी बैठी थी आज कक्षा पाँच में। सबके अपने नाम बताने के क्रम में उसने जब मनीषा बोला, तो मेरे साथ-साथ सुरेश जी भी थोड़े से सरप्राइज हुये। टोपी लगाने का कारण पूछने पर पता चला कि अभी दस-पंद्रह दिनों पहले पिताजी गुजर गये हैं उसके। ग्यारह भाई-बहनों के परिवार में से चार सबसे बड़ी बहनों की शादी हो चुकी है। दस बहनों के बाद ग्यारहवां भाई है। अंतिम कालांश में एचएम ईश्वरसिंह जी से और पता चला कि माँ भी नहीं हैं उनके। एक भाई और तीन बहनें, कुल चार लोगों के नाम अभी स्कूल की कुल नामांकन संख्या 207 में शामिल है। मगर विद्यालय में इनका उपस्थिति प्रतिशत मात्र 15-20 है... लौहारों का वास में रहने बटकी कभी-कभार ही स्कूल आ पाती है क्योंकि उसकी माँ कहीं कमठाने पर जाती है, तब उसे उसके डेढ़ साल के भाई का ध्यान रखना होता है घर पर... मूलतः जालौर की आहोर तहसील के रहने वाले निजाम की माँ को पिता खूब पीटते हैं, तो वो अपने बेटे को लेकर पीहर आ गई है। यहाँ अपने मामा की बेटी आनिया के साथ पाँचवी कक्षा में ही दाखिला ले रखा है। बारी-बारी से दोनों को बकरी चराने जा...

सिवाना डायरीज - 6

 सिवाना_डायरीज - 6 'दिन जब आप बेवजह मुस्कुराने लगो, समझो कि वजहें आने वाली है कि तुम और मुस्कराओ।' - कहीं से उठाई नहीं है, अपने ही मन की बात है। सच भी यही है न कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। आदमी जो खूब मुस्कुराता है। दुख में भी मुस्कुराता है। भगवान जमीन पर है, ये देख लीजिये उसमें। मुस्कुराहट संवेदनाओं की सबसे खूबसूरत तस्वीर है। जहाँ जो भी, जिस भी कारण से खूबसूरत है। सब मुस्कुराहट के कारण से है। मसलन फूल पौधे की मुस्कुराहट है, बचपन जिंदगी की, इंद्रधनुष की मोहक छवि आसमां की, बारिशें मौसम की, नदियाँ जमीन की, उगते सूरज की आभा पूरब की, अस्त होते की लालिमा पच्छिम की और मनोहरा की स्मृति मेरी। जो जहाँ हैं, सबकी खूबसूरती उनकी मुस्कुराहट ही है। बहरहाल मेरा भी एक खूबसूरत दिन। खूबसूरत इसीलिए कि आज खूब मुस्कुराया बिना वजह ही। वैसे सिवाना में रहकर भी अगर मुस्कुरायेंगे नहीं तो फिर कहाँ मुस्कुरायेंगे। होटल से सुबह ही चैक-आउट करके नये घर में आ गया। झाड़ू - पोचे से निपटकर घर बसाने के लिए जरूरी सामान लेने बाजार गया। सोप-ट्रे, कपड़े धोने वाला ब्रश, हार्पिक, लाइजोल,  बाल्टी-मग, डस्टबीन, ऑड...

सिवाना डायरीज - 5

 सिवाना_डायरीज - 5 'The future belongs to you, but it can only belongs to you if you participate and take charge.' - काॅफी अन्नान जी ने अक्खी जिंदगी समझा दी है इस क्वोट से। सच में जिंदगी को भी जीने का मुआफिक तरीका यही है कि बाहर से खड़े होकर देखने पर इसके हर एक एपिसोड के बाद अगले का हम वैसे ही इंतज़ार करें जैसे अभी हम वेबसीरीज पंचायत के तीसरे सीजन का कर रहे हैं। जब चार्ज लेेते हैं हम अपने हाथों में जिंदगी की गाड़ी का, तब डेस्टिनेशन भी हम डिसाइड करते हैं, रूट भी, ट्रेक भी, स्पीड भी  और यह भी कि स्टाॅपेज कहाँ-कहाँ होंगे इसके। लाईफ बिलांग्स करती है हमें जब हम यह मान लें कि इसमें हुये सारे-कुछ के जिम्मेदार हम हैं। मैं जुगत में हूँ यही सब सीखने की कि कैसे लिया जाता है अपने हाथ में इसका हैंडल। बहरहाल फाईव-डे वीक वाली नौकरी की पहली ऑफ वाला दिन। साढ़े नौ बजे सुरेश जी को काॅल किया कि कुछ काम हो ऑफिस का तो चलते हैं। वो  सोलंकियों का वास की सरकारी स्कूल में ले गये। स्कूल्स में शनिवार को नो-बैग डे होता है, जानकर खुशी हुई। बच्चों को बोरी-दौड़, राजधानी बताओ जैसे खेल खिलाये जा रहे थे। क...

सिवाना डायरीज - 4

 सिवाना_डायरीज - 4 'नेहरूवियन थाॅट प्रोसेस गांधीज्म के आलोक में छिप गई या यूँ कहें स्वयं नेहरू ने खुद को गांधीजी की महान छवि के पीछे छिपा दिया था। तभी तो गांधीजी ने प्रधानमंत्री के पद के लिए नेहरू को चुनते हुए कहा था कि आगे से कांग्रेस और भारत सरकार के लिए नेहरू के लिये सारे निर्णय ही गांधीजी के निर्णय होंगे।' - पुरुषोत्तम अग्रवाल जी की पुस्तक 'कौन भारत माता?' पढ़ना शुरू की है। मेरे लिए यह एकदम से नई सी बात है क्योंकि नेहरू जी के लिए मैं भी उसी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से ही सब पढ़ता आया हूँ, जिसका उल्लेख अग्रवाल जी ने किताब में किया है। हालांकि पचास-साठ पेज पढ़े हैं अभी, और अग्रवाल जी को बायस्ड और नाॅन-बायस्ड कह देना अभी जल्दबाजी होगी मगर किताब में मेंशंड उनको कांग्रेस के कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण शिविर में मुख्य वक्ता के तौर पर खड़ा देखकर एक बार मुझे यूँ लगा जैसे मैं किसी पार्टी के बुद्धिजीवी नेता की ही किताब पढ़ रहा हूँ। खैर पढ़ने में मजा आ रहा है इतिहासकार के रूप में अग्रवाल जी की दृष्टि से। बाकि देखते हैं अग्रवाल जी आगे क्या-क्या गुल खिलाते हैं नेहरूवियन थाॅट प्रोसेस के।...

सिवाना डायरीज - 3

 सिवाना_डायरीज - 3 'Eternal vigilance is the price of freedom.' - प्रतियोगिता दर्पण के सितम्बर वाले अंक के सम्पादकीय की अंतिम लाईन का अंग्रेजी अनुवाद है ये। मने स्वतंत्रता की रक्षा हमारे चैतन्य रहने से है। अब इस चेतना की परिधि क्या है, विद्वतजनों के मध्य होने वाला सारा शीत युद्ध इसी के इर्द-गिर्द है। सकलरूपेण स्वतंत्रता के विषय पर मनन करें तो तीन तल दृष्टिगत होते हैं। पहला जो 'राष्ट्र देवो भव:' के खूँटे को नहीं छोड़ना चाहता। दूसरा 'वसुधैव कुटुम्बकम' के साँचे से इतना प्रेम करता है कि वो राष्ट्रीयता के खूँटे का शत्रु मान लिये जाने पर भी नहीं कतराता। तीसरा और अंतिम वो जो राष्ट्रीयता के खूँटे से बंधे हुए भी वैश्वीकरण के साँचे का स्थायी सदस्य है।सैद्धांतिक रूप से विकल्प रखे जायें तो सब कोई तीसरे ही तल को चुनते है, मगर व्यावहारिक तौर पर हम सबमें यह समझ अभी कहां विकसित हुई है कि इसे अवसरवादिता न कहकर सार्थकता कह दें। मेरा व्यक्तिगत उद्देश्य स्वयं में और अपने आस-पास यही समझ विकसित करना है बस। बहरहाल कुछ ज्यादा ही डिप्लोमेटिक हो गई ना बात! एक और खूबसूरत दिन खूबसूरत लोगों...

सिवाना डायरीज - 2

 सिवाना_डायरीज - 2 'हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न पाऊँ, मगर विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की सदैव रक्षा करूंगा।' - फ्रांसीसी विचारक वाल्तेयर का यह कथन राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय वाले पृष्ठ पर एक अरसे से पढ़ता आ रहा हूँ मैं। मगर कितना उतार पाया हूँ खुद में, इसका आकलन खुद के लिए तो मुश्किल सा ही है। पहले कभी एक बार हमारे अश्विनी सर का आलेख पढ़ रहा था। कह रहे थे - हमारे यहाँ व्यक्तित्व के युद्धों से ज्यादा 'वादों' के युद्ध है। आदमी खुद क्या सोचता है, करता है, इस सबसे ज्यादा वो परेशान रहा है पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, लिंगवाद, सामंतवाद, पृथकतावाद, द्विभाषावाद, अवसरवाद, आध्यात्मवाद, मार्क्सवाद, नक्सलवाद, समष्टिवाद, शून्यवाद और भी ब्ला-ब्ला-ब्ला वादों से। कुछ खाँचे जो इंसानों ने ही बनाये हैं, समझ विकसित हो जाने पर इंसान ने या तो खुद को या दूसरों ने उसको इन खांचों में डाल दिया जाता है। और फिर एक ठीक समझ वाला इंसान भी अपने वाद की विरुदावलियाँ गाने वाला बन जाता है। मेरा सोचना है कि काॅकटेल बन जाने या यूज करने से क्यों डरते हैं लोग! ...

सिवाना डायरीज - 1

 सिवाना_डायरीज - 1 'आदमी अपनी ज़िंदगी दो वेज में जीता है। एक लाॅजिकली और दूसरा इमोशनली। लाॅजिक जरूरी है क्योंकि चीजें आगे बढ़े और इमोशन्स जरूरी है क्योंकि ये ही हमें इंसान बनाते हैं। जहाँ कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है, उसके पीछे खास कारण यह है कि इंटेलेक्चुअल्स अपने लाॅजिक को एक खूंटे पर बांध के बैठे हैं और लोगों की भीड़ इमोशन्स के सहारे ही चल रही है।' - इतनी फिलोसाॅफिकल बात बोलते हुए भी हमारे डिस्ट्रिक्ट कॉर्डिनेटर रवि इतने सहज लगे कि मेरे इस नये सफर से पहले दिन ही प्यार हो गया है मुझे। पहाड़ों से रेत तक का सफर था पिछली रात का। या यूँ कहें स्थूल से सूक्ष्म की ओर। कितना एफिशिएंट,  कितना फाईन और कितना एक्यूरेट, ये तो आने वाला समय ही बतायेगा। मगर नाॅन-आर्टिफिशियल लोगों की जमात हैं यहां। पहले भीलवाड़ा से वाया सिवाना बाड़मेर और फिर बाड़मेर से वापस सिवाना। कन्याकुमारी से स्वाति, शोलापुर से सागर, बंगाल से शतान्ति और राजस्थान से अपन, पंद्रह अगस्त के एक दिन बाद सारे झंडे समेट लिये जाने के बावजूद पूरा भारत एक ही कार में बैठा दिख रहा है। बाड़मेर से सिवाना आते हुए रेत के छोटे टिब्बे भी 'व...