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Showing posts from January, 2023

सिवाना डायरीज - 154

 सिवाना_डायरीज  - 154 मंजिलें तय की हो किसी और के ही रास्ते! बेतरतीब जिंदगी को इससे ज्यादा और क्या जानिये!!! - सब-कुछ अपना है। लिखा हुआ भी और परिस्थितियाँ भी। उलझा हुआ है सब-कुछ। मन, दिल और शायद रूह भी। कहाँ? - बस यही पता नहीं चल पा रहा। जिंदगी किस मोड़ मुड़ेगी, इसके इंतजार के अलावा और कुछ बस में भी नहीं दिख रहा। आज से फिर शुरू हुये बच्चों के साथ वाले दिन, टीचर्स के साथ वाले दिन।  उमसिंह की ढाणी और पीपलून स्कूल्स की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। पहली में टीचर्स एनर्जेटिक नहीं है और दूसरी में इंफ्रास्ट्रक्चर। आज दिन-भर इन्हीं दोनों में रहा। ऑफिस में भी तो आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता और मेंटर-टीचर्स की सेकंड फेज की ट्रेनिंग स्टार्ट हो गई है। नये साल की कई नई योजनाएँ हैं हमारे साथ। कुछ अध्यारोपित और कुछ स्वयंस्वीकार। पिज्जा खा लिया आज एक बार फिर हरीश भाई के साथ। शाम का ऐसा ही चल रहा है। परिश्रम करने की सारी कोशिशें अगले दिनों पर टाली जा रही है और लड़ाई की तारीख पास खिसके जा रही है। जीवन बस चल रहा है और कुछ नहीं... - सुकुमार  16-01-2023

सिवाना डायरीज - 153

 सिवाना_डायरीज  - 153 मन की पतंग फंस गई है अपनी आलस्य और कामनाओं के बीच। ठीक कुछ भी नहीं चल रहा। ठीक करने की कोशिश भी नहीं हो रही। दो ब्लेंकेट्स और एक शाॅलापुरी चद्दर क्रास करके भी ठंड भीतर घुस रही है। मैं चाहकर भी अपने भीतर की ऊष्मा-ऊर्जा का उपयोग नहीं कर पा रहा। आर्थिक संतुलन चरामराया हुआ है। और इसके चरमरा जाने की खबर मेरे पीछे से होने भी लगी है। खत्म कुछ ठीक से करने की कोशिश की फिर से, सफलता-असफलता बाद में देखी जायेगी। नया घर देखा एक। अच्छा है, बस किराया ज्यादा मांग रहे हैं। रघुजी अपने जैसे लगते हैं यहाँ।  आँखें तो कब से ही खुल गई थी मगर बिस्तर लगभग शाम के चार बजे छोड़े आज। रविवार के दिन का इतना मिस-यूज इससे पहले मैंने कभी नहीं किया। एकांत साधने तो दूर, कोशिश भी कहाँ हो रही हैं आजकल। ढोकले बनाने की कोशिश की थी आज। काफी हद तक सफल भी रहा। रवि भाई की काॅल आई थी। इन्हें सब पता चल जाता है कि कहाँ क्या हुआ था और क्या नहीं।  ढोकले खाकर बिस्तरों में हूँ और ये ठंड बाहर भी नहीं निकलने दे रही। देखते हैं जिंदगी किधर ले जाती है... - सुकुमार  15-01-2023

सिवाना डायरीज - 152

 सिवाना_डायरीज  - 152 कुछ अहसास जिंदगी-भर संजोये रखने के लिए ही घटने होते हैं। जैसा मेरे साथ कल घटा था। आँख बंद करके जो सोचूँ उसे, तो जिंदगी बहुत सरल और मीठी लगने लग जाती है। उन आँखों के सागर में अपनी सारी कविताएँ घोल लेने का मन करता है। पूरी रात भाग-दौड़ में रहा, मगर उस अहसास ने पाॅजिटिव रखा। बैंगलोर से मुम्बई और फिर मुम्बई से जोधपुर की फ्लाइट्स एयर इंडिया की थी अपनी। संक्रांति है आज। सोच रहा था कुछ बदलेगा जिंदगी में। मगर कुछ खास नहीं।  राजस्थान क्रिकेट टीम बैंगलोर गई थी रणजी खेलने। हारकर लौट रही थी हमारे साथ। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर रवि विश्नोई भी उन्हीं में था। जोधपुर एयरपोर्ट पर फोटो खिंचवाने से पहले तक खूब भाव खाये उसने भी। एकबारगी तो मन फोटो क्लिक करने का भी न हुआ। उतरकर बालोतरा तक रेखाभाई और अकिल जी की कैब में आ गया और फिर बस में। सफर में ही रहा आज पूरा दिन और कई बार मन इसी में रहना चाहता है। मन करता है कि निकल जाऊँ सब छोड़-छाड़कर एक बार। घर आकर थोड़ी देर बातचीत हुई फूलण वाले जगदीश जी के लड़के से और फिर साफ-सफाई की। शाम को विनोद के साथ खेतलाजी निकल गया था उसके दोस्त...

सिवाना डायरीज - 151

 सिवाना_डायरीज  - 151 लोगों ने तरजीह दी या नहीं दी उसके गाये को। मगर वो गाता रहता है अक्सर। उसके साथ रहने वाले जानते हैं कि गाहे-बगाहे वो गुनगुनाता रहता है कुछ-न-कुछ। अपनी उम्र से ज्यादा सपने पाल रखे हैं उसने। उसे अच्छी कविताएँ लिखनी हैं। उसकी कहानियाँ पढ़ते लोगों को उन्हीं के किसी कैरेक्टर में गुम कर देना है। उसे गाने लिखने भी है और गाने भी हैं। कभी-कभार सपना देखता है कि वह गा रहा है मंच से, और लोग नीचे झूम रहे हैं - नाच रहे हैं। जहाँ-जहाँ भी हारता है वह, एक सपना लेकर निकलता है वहाँ से कि एक दिन इतना बड़ा हो जाऊँगा कि यह जीत जीतने वाले को बौनी लगेगी। आज बैंगलोर की अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में था वो शरीर से तो। मन उसका कहीं और ही अटका था। जुम्मे को व्रत होता है उसके, संतोषी माता का। लंच का कूपन जेब में डाले वो इधर-उधर डोल रहा था कि वह बी-2 सेक्शन की गैलेरी में चला गया। एक कोने में पियानो रखा देख उसके भीतर के उदित नारायण को ऊर्जा मिल गई आज फिर। जाकर सारेगामापाधानिसा वाली सरगम की प्रैक्टिस करने लगा यू-ट्यूब देख-देखकर। लगभग दसेक मिनट तक वह यही कर रहा था कि कोई सुकून की छाया सी पी...

सिवाना डायरीज - 150

 सिवाना_डायरीज  - 150 'वह राह जहाँ हमनें एक भी मुश्किल का सामना नहीं किया, समझ लीजिए कि हम गलत राह पर हैं।' - स्वामी विवेकानंद जी को बिसरा दिया है मैंने अपनी जिंदगी से जाने क्यों! एक समय था जब ठाकुर जी और ठाकुर जी की ठाकुर जी की तस्वीर के सामने बैठ मैं अपने मन की सारी व्यथाएँ कहता था। वो तस्वीर आज भी खींचती है मुझे अपनी तरफ। उनके कहे के स्टेटस खूब लगाये हैं मैंने, बस किया नहीं कुछ जो स्वामी जी कहते थे।  पाॅश एक्ट, केआरसी और पीपल फंक्शन पर बात हुई आज के तीनों सेशन्स में। बहुत खूबसूरत नहीं रहा दिन। रूम में आकर एकांत चाहता था। मिला भी, मगर सधा नहीं। मैं अपने आप को आजकल किसी दानव से कम नहीं समझ रहा आजकल, जो खुद का भी नुकसान कर रहा है और अपने से जुड़े लोगों का भी। बस निकाल लिया दिन। कृष्णा भैया को उदास पाया रात को। वो भी जल्दी से मन जोड़ लेते हैं किसी से भी। फिर जब थोड़ा भी डाइल्यूटपन दिखता है, उदास हो जाते हैं। खैर, मैं सो जाता हूँ अभी। शुभ रात्रि... - सुकुमार  12-01-2023

सिवाना डायरीज - 149

 सिवाना_डायरीज  - 149 ये हम पर है कि हम दुनिया को कैसे देखते हैं! समंदर खारा है, केवल इसलिए उसे कोसा नहीं जा सकता। उसका ही पानी बारिश बनकर हम तक पहुँच रहा है, हमारी प्यास बुझाने के लिए उसका शुक्रिया करना चाहिए... मैं भी ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता हूँ आज कि उसने ऐसी जिंदगी दी। ऐसी जिंदगी जो हर कोई जीना चाहता है। कौन नहीं चाहता प्लेन्स में बैठना! कौन नहीं चाहता महंगी-महंगी होटल्स में रुकना! कौन नहीं चाहता रोज पनीर और काजू-करी खाना! कौन नहीं चाहता आये दिन नई जगह घूमना! कौन नहीं चाहता खुद को एक्सप्लोर करना! कौन नहीं चाहता नये-नये लोगों से मिलना! खूब शुक्रिया ईश्वर इस तरह के जीवन के लिए। एक विश्व स्तर के विश्वविद्यालय के कैम्पस में दुनिया के पाँच सबसे बड़े फंडिंग वाली संस्थाओं में शामिल एक संस्था का अंग हूँ मैं भी। एक संस्था जहाँ दुनिया-जहां को देखने-समझने का अवसर मिल रहा है। एक संस्था जहाँ आपकी सुनी जाती है ध्यान से। कई विचारों से असहमत हूँ, मगर उस असहमति के लिए भी जहाँ स्पेस मिलता है। सुबह जल्दी ही जाना था आज होटेल से यूनिवर्सिटी। सबके साथ हो लिया मैं भी। सेशन्स आज यूनिवर्सिटी, ...

सिवाना डायरीज - 148

 सिवाना_डायरीज - 148 'रोहित! जो चीजें जैसी है, वैसी स्वीकार करना सीखो। मिल पाना या नहीं मिल पाना आर दि अदर थिंग, आपकी रिलेशनशिप हेल्दी होनी चाहिए। दूसरों को पाने की कोशिशों के बजाय अगर खुद पर ध्यान दोगे, खुद को खुश रखने की कोशिश करोगे तो मुझे लगता है तुम ज्यादा खुश रहोगे।' - सिगरेट मुँह में लिए मेरे रूम-पार्टनर किरण बता रहे हैं मुझे। हर एक कश में जिंदगी की एक कशमकश सुलझाते हुये किरण बहुत अपने लग रहे हैं। क्रिटिकल थिंकिंग, एनालिटिकल थिंकिंग और हायर इमोशनल एक्सप्रेशन जैसी टर्म्स पर भी क्लासेज हो सकती है, ये मैंने पहली बार अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी मे देखा है। किरण भी यहीं के उत्पाद है, तो मेरी छुपाई जाने वाली बात को पकड़कर उन्होंने सिद्ध किया कि पढ़ा-सिखा कुछ भी बेकार नहीं जाता है।  बहरहाल दूसरा दिन बहुत अनमना-सा निकला यहाँ। आँखें पौड़ी, रावत और उत्तराखंड के उस अक्स में मनोहरा को तलाशती रही। कोशिश मैंने भी कि एक पर्याप्त दूरी रखने की। तरजीह ही नहीं हो जब आपके आस-पास होने की, तो मुझे लगता है आपको हट जाना चाहिए वहाँ से। मैंने ऐसे ही किया। वैसे ऐसे व्यवहार बदलते इंसान मैंने कम ही दे...

सिवाना डायरीज - 147

 सिवाना_डायरीज  - 147 सफल होने के लिए और क्या ही चाहिए! थोड़े बड़े संकल्प, उनको पूरा करने के लिए छोटी-छोटी कोशिशें और उनके हिसाब से बदलती आदतें। कहने-सुनने में क्वोट जैसी हो गई ना बात! मगर जाने क्यों हम कर नहीं पाते हैं। ज्ञान बहुत बाँटते हैं हम सब। मैं इस हम सब में पहला हूँ। सुबह उठकर क्लब हाउस तरफ गया, तो ये भी सबको ढिंढ़ोरा पीट-पीटकर बताऊँगा। होटल गार्डिनिया काॅम्फाॅर्ट्स बहुत शानदार होटल है। तैयार होकर,लगभग बारह बजे पहुँच गये थे हम अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी। एंटर होते ही एक नई तरह की दुनिया दिखी मुझे। बहुत खुलापन है यार यहाँ पर। बातें कुछ भी कर लें, अपने बच्चों को इनके जैसा तो नहीं बनाना मुझे। ज्यादातर लड़कों के बाल 'जऊ' जैसे हो रखे हैं। मानता हूँ ऐसी टिप्पणी ठीक नहीं, मगर इंसान इंसान जैसा तो दिखे। आने वाले पाँच दिन यहीं निकालने हैं हमें। लंच का कुप्रभाव लेकर कैफेटेरिया जा आये हम। उत्तराखंड, पौड़ी और रावत जैसे कुछ शब्दों से अपनापन लगा। सेम डे जाॅइनिंग और कभी भी चाय नहीं पीना भी समानता रही। अक्स देखने लगा मैं उस चेहरे में अपनी मनोहरा का, मगर शाम होते-होते मैं मुक्त हुआ इन सब...

सिवाना डायरीज - 146

 सिवाना_डायरीज  -146 उबलता हुआ खाने-पीने की आदत ने कितनी ही बार जीभ जलाई है मेरी। असल जिंदगी में भी ऐसा ही हूँ। धीरज एक पल का नहीं रखा जाता और मन जला है इसी वजह से कई बार। हर एक उजली चीज पा लेने का मन करता है और मेहनत दो कौड़ी की नहीं हो रही। सपने, सपने और बस सपने। एकांत सारा कबाड़ हो गया है और मैं भी कुड़ा ही। जाने कैसी-कैसी नहीं हो सकने वाली कल्पनाएँ करता रहता हूँ और खा-पीकर सो जाता हूँ आजकल। जैसा शाॅ-केस बना दिया है मैंने जिंदगी का, उसके जैसा गोडाउन करने में ही बची उम्र के निकल जाने का डर है। एक शांत, गंभीरचित्त व्यक्तित्व मेरा क्यूँ नहीं हो सकता। बस यही सोच रहा हूँ आजकल। उतना मौन खुद नहीं रखता, जितना भाषण दे देता हूँ मौन पर। जिंदगी बस निकले जा रही है और मैं इसे बढ़ा-चढ़ाकर बताये जा रहा हूँ। हवाई-अड्डे, हवाई-जहाज और हवाई-यात्रा का दूसरा अनुभव लिया आज। थोड़ा सजग और जागरूक होकर। प्रेम भैया की फिक्र देखो, मुझे छोड़ने आये ठेठ एयरपोर्ट तक इतनी ठंड में भी। वेणी जी और कृष्णा भैया बहुत गुस्सा थे वहाँ की व्यवस्थाओं पर। दस-दस पर उड़ान भरी ली थी इंडिगो की हमारी फ्लाईट ने। जोधपुर और कै...

सिवाना डायरीज - 145

 सिवाना_डायरीज  - 145 शहर सारे एक जैसे होते हैं, बासी और उबाऊ कर देने वाले। आँखें चौंधिया जाती है चकाचौंध से। प्रतिस्पर्द्धा में संतुष्टि मिल ही नहीं पाती वहाँ। चेहरों की बात करूँ तो गाँवों से जो ताजा निकले थे, वे भी सारे बासी हो गये शहरों में आकर। गाँव अपनी बीघा की जमीनों को सिजारी दे, स्क्वायर फुटों वाले कमरों में शिफ्ट हो गये हैं। बड़े-बड़े औरे, उनके सामने कुंदों पर छबल्या वाला झुला लटकाये बरामदे, राजसी फील देने वाले विशालकाय दरवाजे और अपने में मजबूत ईंस और निवार समेटे पोळें आजकल शहरों के 01 बीएचके - 02 बीएचके से छोटी हो गई है। कभी-कभी छोटे शहर भी ठीक लगते हैं मगर वो भी अब मिनी मेट्रोपॉलिटन शहर हो रहे हैं। सिवाना, समदड़ी, कल्याणपुर, मथानिया, ओसियाँ, लोहावट और फलोदी भी बदल रहे हैं खुद को जोधपुर की तरह हो जाने के लिए। बस का सफर इन छोटे शहरों के विस्तार को देखने का सफर भी होता है। ये देखने का सफर भी होता है कि कौनसा कस्बा राष्ट्रीय और राज्य राजमार्ग से कितना जुड़ा है और कैसे जुड़ा है। ठिठुरती सर्दी में शाॅल सिर पर ढंके सुबह सात बजे शुरू हो गया था अपना सफर। सिवाना बस-स्टेंड से ...

आसमां में...

 नीली आँखों वाली वो लड़की। अरे साॅरी-साॅरी! नीली आँखें तो जर्मन लड़कियों की होती है। वो तो इंडियन है। हाँ, दोनों आईब्रोज के ऊपर एक-एक नीली लाईन और उसके ऊपर लाईट पिंक वाली लाईन खींचे वो सुंदरता के अपने ही पैमाने खींच रही है। हाथ में ब्ल्यू वाला पाॅलिथिन का बड़ा कैरी-बेग लिये उससे 'सर, क्लीयरेंस' और 'मे'म, क्लीयरेंस' सुनते दया आ रही है उस पर। एक बात यह भी तो है कि हम सब इंसान सारे तरह के काम के लिए बने हैं, यह भी तो सिखा रही है वो। थोड़ी देर पहले एक वाटर-ग्लास, काॅफी-कप और मसाला ट्विस्ट कुप्पा नूडल्स का एक डिब्बा भी ये ही दे गई थी निपटाने को। तब 'मिस्टर विश्नोई, व्हाट वुड यू लाईक टू टेक इन प्री-बुक्ड मील' सुनते ही बाँछें खिल गई थी मेरी। एक मोमेंट के लिए सोचा भी कि इसे कैसे पता कि मैं मिस्टर विश्नोई हूँ! फिर धीरे से संभाला खुद को तो समझ आया कि लिस्ट है उसके पास सारे पैसेंजर्स की। हड़बड़ाहट में 'आफ्टर सम टाईम। आई वियर थिंक अबाउट इट' बोलकर टालना चाहा। मगर फिर एकदम से सोचा कि क्या पता फिर आयेगी या नहीं ये, तो जल्दी से काॅफी ऑर्डर कर दी। अब उसका सवाल बदल चु...

सिवाना डायरीज - 144

 सिवाना_डायरीज  - 144 बगावत करने का मन है इस जिंदगी से। बगावत जो इसे आईना दिखा सके अपना। बगावत जो धक्का दे इसे फिर से इंसानियत के ट्रेक पर। बगावत जो आँख नहीं मीचे इसके सब-कुछ पर ही। बगावत जो निखारे। झंझावातों का एक समंदर घेरे हैं सुकून के छोटे से टापू को। स्वतः-स्फूर्त पीड़ा की बड़ी-बड़ी लहरें अक्सर डुबा देती है सारे किनारे और चौपट कर देती है सारी मन-व्यवस्था। नसें उलझती जा रही है जाने क्यों! मौसम से ज्यादा हालातों की ठंड ठिठुरा रही है  सबको लग रहा है कि ठीक से कट रही है मेरी। बस मुझे ही नहीं लग रहा। आँखे मीच ध्यान करने में भी मन नहीं लग रहा। कुछ ज्यादा ही उलझा लिया है शायद खुद को! कोशिशों में हूँ कि जल्दी निकलूँ बाहर इससे और सामान्य हो जाऊँ। यकीन करूँ या न करूँ, ठंड यहाँ भी अच्छी वाली ही है। मुझे जमाये रखती है बिस्तरों में सूरज के माथे पर आने तक। हरसंभव कोशिश चल रही है मनोहरा को मनाने की। सफलता के नाम पर दिलासे मिल रहे हैं। ऑफिस में लाइब्रेरी वाले काम में ही अटका हूँ। सुरेश भाई आ गये हैं टोंक से। उनकी उपस्थिति संबल देती है मुझे। विनोद मिलने आया था आज। रमेश मार्केटिंग वाल...

सिवाना डायरीज - 143

 सिवाना_डायरीज  - 143 सेल्फ रियलाइजेशन अच्छी बात है, मगर कब तक करते रहोगे! सेल्फ रियलाइजेशन खुद में इम्प्रूवमेंट की फर्स्ट स्टेप है। बट इसी स्टेप पर खड़े रहकर आसमां थोड़े ही चूमा जा सकेगा। 'मैं अच्छा हूँ', 'मैं अच्छा होने की कोशिश लगातार कर रहा हूँ' और 'मैं सबको खुश रख लूँगा' का ढिंढ़ोरा और कितना पीटोगे? बनके बताओ अच्छा, रखके बताओ सबको खुश और सबसे पहले रहके बताओ चुप। किसी से बात करते हुए पाँचवी लाईन में ये बोल देना जरूरी नहीं है कि 'मुझे लिखने का शौक है।' जिसको पहचानना होगा, वो खुद-ब-खुद पहचान लेगा। क्यों बताना किसी को कि मेरे किताब आ चुकी है एक और एक आने में हैं! अगर समझदार है कोई, तो कभी ठीक नहीं मानेगा इस बिहेव को।  आजकल खुद को ही समझा रहा हूँ अक्सर। कोई मेरे ठीक इंसान हो जाने का इंतजार कर,रहा है शायद और मैं उसे लगातार गलतफ़हमी में रखे हूँ कि मैं बन रहा हूँ। निष्ठा और सत्यनिष्ठा जैसे शब्द बस जीभ से निकल रहे हैं, व्यवहार से नहीं आजकल। अब कोसने लगा है मन खुद को। सुबह से शाम होने का इंतज़ार किसी ढंढ़ूस-कामचोर आदमी की तरह कर रहा हूँ आजकल। ऑफिस में लाइब्रे...

सिवाना डायरीज - 142

 सिवाना_डायरीज  - 142 कितने खूबसूरत होते हैं ना वे लोग जिन्होंने अपनी खुशियाँ अपनों की खुशियों में खोज ली हो! कितने प्यारे होते हैं ना वे लोग जिन्होंने अपने प्रेम को गले लगाकर विदा किया हो! कितने हिम्मत वाले होते हैं ना वे लोग जो आह तक नहीं निकालते किसी चेहरे पर मुस्कुराहट जोड़ने के लिए जहनी तौर पर खुद पूरा टूट जाने के बाद भी! कितने अलबेले होते हैं ना वे लोग जिन्होंने अपने अल्हड़पन को दबा दिया किसी की जड़ता को अलबेला करने के लिए! कितने मासूम होते हैं ना वे लोग जिन्होंने सब-कुछ पाकर भी लुटा दिया! कितने संजीदा होते हैं ना वे लोग जिन्होंने सबका हँसकर स्वागत किया और हँसकर ही विदा किया! अच्छे लोगों की परिभाषा मेरे लिए बस इतनी सी है कि वो खूबसूरत, प्यारे, हिम्मत वाले, अलबेले, मासूम और संजीदा हो ना हो, प्रेमी हो बस। वैसे भी इंसानियत और मोहब्बत की परिभाषाओं में हेरफेर बस शब्दों का है।  कृष्णा भैया के ही नाम रही सुबह। दुनिया-भर का सब-कुछ जानते हैं वो। ऐसा उन्हें लगता है। बाड़मेर बस-स्टेंड के सामने वाले की तरफ छोले-भटूरे वाला अड्डा बाड़मेर होने पर सुबह-सुबह का अपना स्थायी पता हो गय...

सिवाना डायरीज - 141

 सिवाना_डायरीज  - 141 संक्रांति में कोई दसेक दिन बचे हैं। आसमान बता रहा है। सुबह का धुंधलापन छंट रहा है धीरे-धीरे। जिंदगी से भी यही उम्मीदें हैं। मुझे लगता है सुबह को इसलिए पसंद नहीं किया जाना चाहिए कि अंधेरा लील लेती है ये, इसे इसलिए पसंद किया जाना चाहिए कि रास्ते साफ करती है ये मुझ जैसे भटके हुओं का। ये इल्म मुझे भी है कि फितरत शबें और सुबहें देखकर नहीं बनती, मगर जो महसूस किया वो यह भी है कि मैं इंसानियत के पैमाने पर अक्सर सुबह से शाम तक में ढलता ही हूँ। बात जिंदगी को ठीक करने की हो या एकांत साधने की, मैंने रात होते-होते हमेशा खुद को एक औसत या दोयम दर्जे का हाड़-मांस का पुतला पाया है। इस संक्रांति से खूब उम्मीदें हैं। उम्मीदें इसलिए भी कि ये दिन मौसम में बदलाव की शुरुआत है। अहसासों की एक लम्बी ठंड झेल लेने के बाद जिंदगी के मौसम में ऐसी संक्रांति की एक उम्मीद मुझे भी है। संक्रांति के साथ-साथ एक जैसे शब्द के कारण सुकरात भी याद आ जाते है मुझे। मेरी जिंदगी में संक्रांति लाने के लिए उनका एक क्वोट भी है कि - 'इस दुनिया में सम्मान से जीने का सबसे महान तरीका है कि हम वो बनें जो हम ह...

सिवाना डायरीज - 140

 सिवाना_डायरीज - 140 कंप्यूटर-स्क्रीन पर राईट-हेंड क्लिक कर रिफ्रेश बटन पर क्लिक करना एक नई संभावना देता है कि अब कुछ नहीं अटकेगा। उलझी हुई उसकी जिंदगी में पावर-बटन भी केवल साँसें रोकने के लिए नहीं है, रिस्टार्ट का विकल्प है। घड़ी की सुईयों से निकले वक्त की पीठ पर मेहनत का थोड़ा रेगमाल रगड़ेंगे तो चमक जरूर आयेगी। जिंदगी खेती है, फसल काटकर समेट घर ले जाने के बाद भी जो खेतीहर रोज खेत जाता है, वो खेत अगली बारी दूसरों से ज्यादा निपजता है। हाई-वे पर चलने वाली ट्रकों का अंतिम लक्ष्य उनका गंतव्य होता है, रास्ते में सबसे आगे हो जाना नहीं। व्यक्ति की विद्वता का प्रमाण उसका आचरण है। चित्तौड़ वाले माणिक जी से बात करना खुद को बूस्ट करना है। एक जोरदार वाले खरे आदमी। इतने खरे कि किसी भी चलताऊ कविता को उसके लिखने वाले के सामने चलताऊ कह दे। कुछेक मसलों को छोड़ दें तो जिंदगी की राह बनाने वाले माणिक। खुद को ठीक करने की कोशिशों में सीकर वाले जय भैया को भी काॅल करके माफी मांग ली आज। करीब सवा घंटा बात कर लेने के बाद एक बार फिर महसूस किया कि अगर नहीं करता काॅल तो जिंदगी के सबसे संजीदा शख्सों में से एक क...

सिवाना डायरीज - 139

 सिवाना_डायरीज  - 139 जो आ रहा है, यह है या नहीं अपना - के द्वन्द्व के बीच तीस की शाम ही प्रिंट ले आया मैं नये साल के रिजोल्यूशन्स और डेली-शिड्यूल का जनता फोटो काॅपी वाले से। नया साल मनायें - न मनायें, अपना वाला चेत में आयेगा - ये तो फिरंगियों वाला है और इस दिन नया होता क्या है कुदरत में? - इन्हीं सारी उहापोहों के बीच कैलेंडर भी बदल गया पूरे भारत के घरों में। मंदिरों के पुजारियों ने भी 'अपना नववर्ष चैत्र में'' वाला मैसेज फारवर्ड करके ठाकुर जी की मूर्ति को थोड़ा और करीने से सजाया है आज। ऑफिस के सामने वाले छप्पर वाले घर के चौथी क्लास के जीतू ने नहा-धोकर नया कुर्ता पहना है आज। व्हाट्सएप पर सुनामी है पर्सनल वाली विशेज की और ग्रुपों में ज्यादातर में दिनकर जी की 'ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं' वाली कविता इधर-उधर हो रही है। पर्सनल विशेज को मैं भी 'सेम टू यू' को काॅपी करके पेस्ट किये जा रहा हूँ।  सुबह सवा तीन से मशीन बना लिया था आज तो खुद को। राजस्थान की नदियाँ कितना-कुछ समेटे हैं खुद में। उन्हीं का थोड़ा सा सार अपन ने भी समेटने की कोशिश की आज। सुरंगें पानी की भी होती...